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पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/२१६

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मैं-"हाँ, स्मृतिकी व्याख्या तो यही है न कि जिसे याद रखनेकी जरूरत हो असे याद रखने और बाकीको भूल जानेकी शक्ति ।" बापू- ." हो, संकीके खतको मैंने भितना महत्व दिया ही नहीं था। असे लिखवाया और भूल गया । दादका पत्र अिसलिमे याद रहा कि असमें अक अिन्सानकी गहरी भलाीकी बात थी । संकीको तो लिखवाकर मैं भूल गया। सच बात यह है कि वही दिग्वायी देनेवाली चीजें मुझे बड़ी नहीं लगतीं और छोटी चीजें मेरे लिअ बड़ी बन जाती हैं। महाभारत-से दिखाी देनेवाले काम मुझे कभी महाभारत लगे ही नहीं। चंपारनसे लगाकर आज तक सब काम मैं ट्रॅपने नहीं गया था, मगर असा लगता है मानो वे मेरी गोदमें आ पड़े हों। और अिसी तरह चला जा रहा है। भगवान निभा रहा है।" " “ , यहाँके कांही वार्डमें श्री परचुरे शास्त्री भी हैं । बापने अनसे मिलनेका प्रयत्न किया था। लेकिन चूंकि रक्तपित्तके रोगियोंको ३-६-३२ दुसरोंसे नहीं मिलने देते, अिसलिमे मिलना न हो सका । लेकिन बापूको सुनका खयाल तो कभी बार आता ही रहता है । अक दिन उनकी तबीयतका हाल पूछनेके लिखे पत्र लिखा । असका हिन्दीमें सुन्दर अत्तर आया । वह सारा ही मननीय और पावक है : पृज्यपाद श्री बापूजी चरणकमलाम्यां नतिततयो विलसन्तु, आपका कृपाकटाक्ष परिपूरित पत्र देखकर अंतःप्रसाद मिला है । यही रामप्रभुका अनुग्रह है, असी मेरी श्रद्धा है । हरोलीकर और मैं निश्चिन्त हूँ अभी तक अवयवमंगादि विकलता नहीं है । मेरा विश्वास आसन, प्राणायाम, धोती, नेती, बस्ति आदि क्रिया और हविष्यान्न सेवन द्वारा अिस रोगको हटानेपर और पूर्ण परिहारक साधनों पर अनुभवके अनुसार बढ़ रहा है। मेरी सजा ओक साल अधिक दो मासकी है। हरोलीकरकी सात मासकी-अब दो मासकी वाकी है। आपके चरण सेवामें हरोलीकरका प्रणिपात । सरदारजी और महादेवभाजीको हमारा दोनोंका प्रणाम । "गीतोपनिषद, भाध्यादि, वेदान्त परिशीलन, आसन, ध्यान, भजन, और प्रति दिन ५०० वार नियमित कातना -अिसी कर्ममें मेरा काल आनन्दसे व्यतीत होता है । अक ही चिन्ता है कि मेरी पत्नी अन्माद और मूछना रोगसे पीड़ित होकर रोगशैया पर पड़ी हुश्री होनेके कारण पूनी और पुस्तक मिलने की अशक्यता है । पुनीसंग्रह मेरे पास बहुत थोड़ा है । कातनेका व्रतभंग प्रसंग श्री रामकृपासे किसी तरह परिहत होगा । न मालूम कुष्टव्याधिक कारण जेलका अन्यसंग्रह हम लोगोंके वास्ते बन्द ही है । पुस्तक अगर पुनी १९३ । 1.३