पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/३५१

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२. आश्रमके संचालक मण्डलके ज्यादातर लोग पसन्द न हों, तो अन्हें -सहन करना सीखनेका यह सुनहरी मौका है । दोषोंसे खाली कोसी नहीं है । और अपने जैसा ही दूसरोंको मानना चाहें, तब तो पसन्द-नापसन्दका भेद ही 'मिट जाता है। ३. आभमके असल मंजूर हैं तो अनके बाहरी रूपके बारेमें मतभेदकी चिन्ता नहीं होनी चाहिये । हमें 'मम मम' यानी तत्वके साथ काम होना चाहिये, 'टप टप' यानी बाहरी रूपके साथ नहीं । ४. तुम्हारे स्वभावके दोष मिटानेके लिओ तो आश्रममें रहना ही धर्म है। ५. तुम आश्रममें अपने ध्येयों तक नहीं पहुँच सको, तो दोष तुम्हारा है । आश्रममें पूरी आजादी है । ६. तुम्हारे प्रेमीजनोंका आकर्षण तुम्हें आश्रमके बाहर क्यों ले जाय ? सुनका प्रेम अन्हें आवश्यकतानुसार रास्ता दिखायेगा । प्रेमके लिअ शरीरके पास रहनेकी जरूरत होती ही नहीं, और हो तो वह प्रेम क्षणिक ही माना जायगा। अकके शुद्ध प्रेमकी परीक्षा दूसरेके वियोगमें --~- असके मरनेके बाद होती है। मगर यह सब तो बुद्धिवाद हुआ | तुम्हारा दिल जहाँ होगा वहीं तुम रहोगी । हृदय आश्रममें न समा सके तो में क्या कर सकता हूँ और तुम क्या कर सकती हो?" अिस बहनको वापूने लिखा था किसीके काज़ी न बनो, भले ही दूसरे तुम्हारे काज़ी बर्ने' अिस सूत्रके आधार पर भी मंत्रियोंकी आलोचना करना योग्य नहीं।" अिसका जवाब बहनने चिढ़ कर दिया- " भले ही हमारी आलोचना हो, लेकिन क्या अिससे दूसरोंकी आलोचना न करें ? सार्वजनिक व्यक्तियोंकी आलोचना करनेका हक सबको है ।" अिन्हें लिखा- “ “किसीका न्याय न करो, भले ही दूसरे तुम्हारा करें' की तुम्हारी आलोचना तुम्हें शोभा नहीं देती । असका अर्थ ही तुम नहीं समझी । तुम्हारी आलोचनामें बहुत अहंकार भरा है। भले ही तुम्हारा न्याय दूसरे करें' का अर्थ तो यह है कि हमें अंते दोपमें न आना चाहिये । हम दुनियाके सामने सुद्धत न बने । 'भले ही दुनियाको जो कहना हो या करना हो वह कहे या करे । असा विचार या वचन हम कैसे करें ? दुनियाके सामने हम तुच्छ हैं । यानी दम सत्य मार्ग पर होते हैं, तब भी दुनियाको सजा नहीं देते । सुसका न्याय नहीं करते । मगर हम दुनियाको सजा और न्यायको सहन करते हैं। जिसका नाम नम्रता या अहिंसा है । तुम्हारा लेग्य व्यंगमें या क्रोधमें लिला गया हो, तो मैं चाहता हूँ असा न लिया करो। मुस पर जो गुस्सा निकाला है अगको चिन्ता नही । जिसको मैं हंसीमें झुरा सर्केगा। मगर ये वचन मुझे चुमते