पृष्ठ:महादेवभाई की डायरी.djvu/३७५

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- - . जैसा होना चाहिये वैसा ही बनूंगा। मेरी तुमसे यह अपील है कि तुम भिस चोलेसे बाहर निकलो और अपने आसपासके हर चेहरेमें अपने आपको देखो । अितने आदमियोंके बीच तुम्हें अकेलापन क्यों महसूस होना चाहिये ? अगरं हम अपने पड़ोसियोंकी संगतिमें और सुनकी सेवामें आनन्द न ले सकें, तो हमारा सारा तत्वज्ञान फजुल है।" को की आत्माका अब हनन न करो । असके हठके लिओ मेरे दिलमें आदर है। जिसे वह धर्म मान बैठी है, असमें हम कैसे बाधा दे सकते हैं ? असे प्रोत्साहन भी दें । असका भरणपोषण करना तुम्हारा धर्म है । अस पर रोष नहीं होना चाहिये । कोमी परात्री स्त्री हो तो असके आचरण पर हम रोष नहीं करते, वैसा ही यहाँ होना चाहिथे । अिस तरहके अभेदमें भीतरी सुखकी कुंजी है।' अक लड़कीको "क्रोध आये तब क्या करें ? यह प्रश्न न करके यह पूछना चाहिये कि क्रोध न आये जिसके लिअ क्या करें । क्रोध न आये, जिसके लिये सबके प्रति अदारता सीखनी चाहिये और यह भावना बनानी चाहिये कि सबमें हम हैं और हममें सब हैं । जैसे समुद्रकी सब दें अलग होनेपर भी अक ही हैं, वैसे ही हम जिस संसारसागरमें हैं। अिसमें कौन किस पर क्रोध करे ?" दूसरी अक लड़कीको "जहाँ तक तेरा हृदय दोष न माने वहाँ तक दोष नहीं समझना । अन्तमें हमारे पास दूसरा कोसी नाप नहीं है । अिसीलिओ हम हृदयको स्वच्छ रखनेकी कोशिश करते हैं । पापी मनुष्य पापको ही पुण्य मान लेता है, क्योंकि उसका हृदय मलिन है । कुछ भी हो, जब तक असे शान नहीं हुआ तब तक पापको ही पुण्य समझकर चलता रहेगा । अिसलिओ तेरे लिये अच्छा क्या है, वह और कोमी नहीं बता सकता है । मैं तो जितना ही बता सकता हूँ कि हमारे सत्य और अहिंसाके पथ पर चलना है । और असा करनेके लिये यमनियमादिका पालन आवश्यक है।" "आश्रममें जातपाँत नहीं मानी जाती, क्योंकि जातपाँतमें धर्म नहीं है। अिसका हिन्दूधर्मके साथ कोमी वास्ता नहीं है । किसीको भी अपनेसे नीचा या चा माननेमें पाप है । हम सब समान हैं। छुआछ्त पापकी होती है, मनुष्यकी कमी नहीं होती । जो सेवा करना चाहते हैं सुनके लिखे धूचनीच होता ही नहीं । सुचनीचकी मान्यता हिन्दुधर्म पर कलंक है । मुसे हमें मिटा देना चाहिये ।" आत्मा, कुटुम्ब, देश और जगतके प्रति चार पृथक पृथक धर्म नहीं है। अपना अथवा कुंटुम्पका अकल्याण फरके देशका कल्याण नहीं हो सकता ।