पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१३

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पहातक हमने अपनी माकांक्षा और उसके कारण भादिका वर्णन करके "महा- भारत-मीमांसा" को अपने हिन्दीप्रेमी भाइयोंको अर्पण किया है और सब इतिहास कह सुनाया है। इस एक ही ग्रन्थके प्रकाशित करने में हमें भाशा और निराशाके अनेक अवसरोका सामना करना पड़ा; तथापि हमारा यह पूर्वनिश्चय ज्योंका त्यों ही बना हुआ है कि समस्त महाभारतका हिन्दी संस्करण अवश्य ही प्रकाशित किया जाय । इस निश्चयमें विघ्नोंके कारण तो और भी प्रबल उत्साह आ गया है। कोई विघ्न नावे इसी हेतुसे भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र की अनुपम लीलाओसे भरे हुए हरिवंश- पर्वके अनुवादसे ही हमने महाभारतका प्रकाशन प्रारम्भ किया है । हमें भरोसा है कि श्रीकृष्णचन्द्रकी कृपासे सव विघ्नोंका परिहार होकर सब लोगों के प्राशीर्वाद तथा सहायतासे अभिलषित कार्य शीघ्र ही सफल होगा। बाधाओंके रहने पर तथा वर्तमान संकटपूर्ण परिस्थितिमें भी हम जिन राजगढ़ दरबार तथा वहाँके दीवान प्रभृति सज्जनोंकी उत्तम सहायतासे इस प्रन्थका प्रका- शन कर सके हैं, उनका अभिनन्दन करना हमारा पहला नैतिक कर्तव्य है। इसी लिए हम महाराज साहबका यहाँ थोड़ा सचित्र चरित्र-वर्णन प्रकाशित करते हैं। इस भागके प्रकाशनमें पूर्ण आश्रय देकर उन्होंने हमें कृतकृत्य किया है, अतएव यह भाग हम उन्हींकी सेवामें समर्पित करते हैं । ग्रन्थकी छपाई का काम अल्प समयमें उत्कृष्ट रीतिसे कर देनेके लिए बनारसके श्रीलक्ष्मीनारायण प्रेसके मैनेजर श्री. ग. कृ० गुर्जर भी हमारी हार्दिक कृतज्ञताके पात्र हैं। इनके अतिरिक्त हमें इन महाशयोसे भो किसी न किसी प्रकारकी उच्च सहायता मिली है:-(१) दीवान बहादुर श्री- मान दुर्गासहाय, दीवान राजगढ़ स्टेट, सी० श्राई, (२) डाकृर लीलाधरजी मिश्र, प्राइवेट सेक्रेटरी, राजगढ़ दरवार ( ३) ग. रा. गणेश रामचन्द्र पटवर्धन बी० ए० हेड मास्टर, राजगढ़ हाई स्कृल । इन सजनोंका उपकार मानकर हम अपने निवे- दनको समाप्त करते हैं। पूना। विजयादशमी, वि.सं. १९७७ बालकृष्ण पांडुरङ्ग ठकार, प्रकाशक ।