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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१४६

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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा #

दिनसे अधिक होता है । यह कठिनाई वाले। यह स्पष्ट मालुम होता है कि ऋग्वेदके समयमें उपस्थित हुई होगी; बारह चान्द्र मासोंमें वर्ष पूरा करनेवाले परन्तु यह बात नहीं मालूम होती कि लोग तैत्तिरीय संहिता और ब्राह्मण सकी या व्यवस्था की गई थी। मालम | ग्रन्थके समय थे। शतपथ-ब्राह्मण (कांड होता है कि तैत्तिरीय-संहिताके समय ११,१-१०) में कहा गया है कि इस तरह- तथा ब्राह्मण-कालमें यह बात पूर्ण रीतिसे के ३० चान्द्र वर्षोंके बीतने पर वर्ष सब मालूम थी। इस कारण वर्षके तीन भेद- ऋतु-चक्रोंमें घूम जाता है । तथापि, मालूम सावन, चान्द्र और सौर-हो गये थे। होता है कि अधिक मास रखनेकी प्रथा सावन नामक स्थूल मान पहलेसे ही न थी। तात्पर्य यही दिखाई पड़ता है कि प्रचलित था। उसके विभाग ये हैं। छः | तैत्तिरीय-संहिता और ब्राह्मण-कालमें दिनका एक षडह, पाँच षडहका एक चान्द्र वर्ष माननेवाले बहुतसे लोग थे। महीना, और बारह महीनेका एक वर्ष। हमने पहले बतला दिया है कि यही समय इस गणनाके कारण पौर्णिमा और अमा- भारती युद्धका था। पहले यह भी बत- वस्थामें गलतियाँ होती थीं । तब बीचमें लाया जा चुका है कि भारती युद्ध ऋग्वेद- एक दिन छोड़ दिया जाता था। इससे के बाद और ब्राह्मण-ग्रन्थके पहले हुआ। उत्सर्गी और अनुत्सर्गी नामक भेद। अब हम यह विचार करेंगे कि सौर उत्पन्न हो गये; क्योंकि कुछ लोग दिन वर्ष और चान्द्र वर्षका मेल मिलाकर छोड़ते थे और कुछ न छोड़ते थे। तैत्ति आर्योनेसौर वर्षकाहीप्रचार कबसे किया। रोय संहिताके "उत्सृज्या नोत्सृज्या इति वेदांग ज्योतिषमें यह व्यवस्था की गई है, मीमांसन्ते ब्रह्मवादिनः" इस अनुवाकमें कि पाँच वर्षाका एक युग मानकर प्रत्येक इसी विषयकी चर्चा है । इस सूक्तसे ढाई वर्षों में एक महीना अधिक जोड़ना मालूम होता है कि उस समय सावन चाहिये । यह व्यवस्था स्थूल हिसाबकी और चान्द्र महीने तथा सावन वर्ष और है, अतएव इसमें कुछ वर्षों के बाद दिन चान्द्र वर्ष दोनों प्रचलित थे। इस तैत्ति- बढ़ जाते हैं। इसलिये एक क्षय माल रखने- रीय सूक्तका अवतरण यहाँ देने योग्य है:- की प्रथा शुरू की गई। यही घेदांग ज्यो- अमावास्यया हि मासान्संपाद्य अहरु- तिषका समय सन् ईसवीसे पूर्व १४००के स्खजन्ति । अमावास्यया हि मासान् संप- लगभग है । इसके बाद जब राशि, अंश त्स्यन्ति ॥ आदि विभागात्मक गणित स्थिर किया यहां पर भाष्यकार कहते हैं-"यदिदं गया और सन् ईसवीके प्रारम्भके लग- पक्षवयं सावनमासाभिप्रायम् । अथ भग नये सिद्धान्त प्रचलित हुए, उस चान्द्रमासाभिप्रायेण पक्षद्वयमाह।" ऊपर समय पाँच सम्वत्सरोंके युगकी प्रथा का अनुवाक 'गवामयनम्' के वार्षिक छोड़कर यह नया सूक्ष्म सिद्धान्त स्थिर सत्रके सम्बन्धमें है। इससे यह स्पष्ट किया गया कि जिस मासमें सूर्य-संक्रान्ति मालूम होता है कि वर्ष सावन-मासोंके न हो, वह अधिक मास और जिसमें दो द्वारा और चान्द्र मासोंके भी द्वारा पूरा सूर्य-संक्रान्तियाँ हों वह क्षय मास समझा किया जाता था। चान्द्रमास दो प्रकारके जाय । यही सिद्धान्त आजतक जारी है। थे। एक पौर्णिमाको समाप्त होनेवाले इससे प्रकट होता है कि चान्द्र वर्ष, सम और दूसरे अमावस्याको समाप्त होने ईसवीके इस ओर, अवश्य बिलकुल