पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/१७१

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ॐ इतिहास किम लोगोंका है। * महाभारत तकके अन्धोंके इतिहाससे महापराक्रमी हुश्रा: पर वह ऋग्वेदका यही बात पाई जाती है। अब इन चन्द्रवंशी भरत नहीं है, इस बातको दर्शानेके लिये शाखाओंका जरा विस्तारसे विचार ब्राह्मण-ग्रन्थमें उसे 'दौष्यन्ति भरत' कीजिये। नाम दिया गया है। इस भरतके कुलम कुरु हुा । सरस्वती और यमुनाके बीच दूसरे पाये हुए चन्द्रवंशी प्रार्यो के भारी मैदानको 'कुरुक्षेत्र' कहते हैं। पुरुका कुल खुब बढ़ा और प्रसिद्ध हो यहाँ कुरु-परिवारकी खूब उन्नति हुई। गया। ययातिके पाँच पत्रों में पुरु ही मुख्य पार्योंकी संस्क्रति यहाँ अत्यन्त लात राजा हुआ । उसे पिताने यह श्राशीर्वाद हुई । लोग यहाँकी भाषाको अत्यन्त दिया था कि-"अपौरवातु मही न कदा- संस्कृत मानने लगे। यहाँके व्यवहार और चित् भविष्यति ।" ये पुरु पहले सरस्वती- रीति-रवाज सबसे उत्तम समझे गये। के किनारे श्राकर रहे और फिर दक्षिणकी ब्राह्मण-ग्रन्थों में इस विषयके वर्णन हैं। ओर फैल गये । ऋग्वेदमें सरस्वतीके सूक्त- महाभारतसे सिद्ध होता है कि पुरुश्रोकी में वशिष्ठने वर्णन किया है कि सरस्वतीके । राजधानी हस्तिनापुर थी जो कि गङ्गाके दोनों किनारों पर पुरु हैं। ऋग्वेदसे यह पश्चिमी किनारे पर श्राबाद था। इसी भी ज्ञात होता है कि पुरुको दस्यु अर्थात् वंशम कौरव हुए और पाण्डवोंका सम्बन्ध भारतवर्ष के मूल निवासियोंसे अनेक । भी इसी वंशसे है। भरत और कुरुका लड़ाइयाँ करनी पड़ी। यास्कने सूचित उल्लेख यद्यपि ऋग्वेदमें नहीं है, तथापि किया है कि पुरु शब्द का साधारण अर्थ : इस बातका प्रमाण है कि ऋग्वेद सूक्तोंके मनुष्य करना चाहिए। इससे यह देख अन्तसे पहले वे थे, क्योंकि अन्तके एक पड़ता है कि पुरु प्रबल होकर सर्वत्र फैल सूक्तका कर्ता देवापि, शन्तनुका भाई गये थे। पुरुके वंशमें अजामीढ़ हुआ है। कौरव वंशम हुआ था । यह बात पहले ही उसका उल्लेख भी ऋग्वेदमें है । इन पुरुओं लिखी जा चुकी है। और अन्यान्य चन्द्रवंशियोके ऋषि कराव और अङ्गिरस थे। पुरुके कुलमें आगे भारती युद्ध में प्रायः सभी चन्द्रवंशी चलकर दुष्यन्त और भरत हुए हैं। ऋग्वेद- राजा शामिल थे, इसलिये हम अन्यान्य में उनका नाम नहीं है। परन्तु दोष्यन्ति | शाखाओंके इतिहास पर भी विचार करते भरतका नाम ब्राह्मणमें है। ब्राह्मणमें हैं। ऋग्वेदमें यदु लोगोंका उल्लेख सदा अश्वमेध-कर्ताओंमें भरतका वर्णन है। तुर्वशोंके साथ पाया जाता है। उसमें करव अश्वमेधशतेनेष्वा यमुनामनु वाव यः। ऋषिका भी उल्लेख है। पहले यदु-तुवंश त्रिंशताश्वान्सरस्वत्यां गङ्गामनु चतुशतान् ॥ एक ही जगह रहते होंगे। इनके विषयमें ____ शतपथके अनुसार यह वर्णन महा-। पहलेपहल वसिष्ठादि ऋषि प्रार्थना करते भारतमें है। इससे भी यही मालूम होता हैं कि-“हे इन्द्र ! तू यदु-तुर्वशोंकी है कि पुरुओका राज्य यमुना, सरस्वती मार ।" परन्तु फिर वे जब यहाँके पर्क और गङ्गाके किनारों पर था । यह भरत निवासी हो गये, तब उनका वर्णन अच्छे

  • महाभारतमें श्रीकृष्ण कहते हैं- "जरासन्धके दरसे ढंगसे होने लगा। यहाँ पर यह बात

में अपना प्यारा मध्यदेश छोड़ देना पड़ा।" "स्मरन्तो! कहने लायक है कि ऋग्वेदका पाठबाँ मध्यमं देशं वृष्णिमध्ये व्यवस्थितः ।" (सभा० १४.६०) मण्डल कारष ऋषियोका है । करावके