पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२१५

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ॐ वर्ण-व्यवस्था । * २८६ प्राता है; परन्तु यह भी देखना चाहिये ब्राह्मणके नाते जो सुविधायें ब्राह्मणोंको कि दर-असल बात क्या थी। महाभारतमें दी गई हैं उनसे प्रत्येक ब्राह्मण लाभ नहीं कहीं ऐसा उदाहरण नहीं मिलता उठा सकता। अपना कर्तव्य न करनेवाले जिसमें अन्य वर्णोंने ब्राह्मणोंके विशेष ब्राह्मण प्रत्यक्ष शूद्र-तुल्य माने जाते थे। अधिकारोंसे काम लिया हो । विश्वामित्रने ब्राह्मण जो और और काम करते थे सूर्यवंशी त्रिशङ्क और कल्माषपाद आदि उनका उल्लेख भी इस अध्यायमें है राजाओंका याजन किया था अर्थात उन्हें (शान्ति० अ० ७६)। मासिक लेकर पूजा यज्ञ कराया था। परन्तु वह तो उस समय करने, नक्षत्र-ज्ञान पर जीविका चलाने, ब्राह्मण हो गया था । कहीं उदाहरण समुद्रमें नौकाके द्वारा जाना आदि व्यव- नहीं मिलते कि और लोगोंने प्रतिग्रह साय करनेवाले, इसी तरह पुरोहित, लिया हो । अध्यापन भी ब्राह्मण ही कराते मन्त्री, दूत, वार्ताहर, सेनामें अश्वारूढ़, थे। और और वर्णों को उस उस वर्णकी गजारूढ़, रथारूढ़ अथवा पदाति प्रभृति विद्या ब्राह्मण ही पढ़ाते थे। कौरवोंको नौकरी करनेवाले ब्राह्मण उस समय थे। धनुर्विद्या सिखाने पर ब्राह्मण द्रोण राष्ट्रमें यदि ब्राह्मण चोरी करने लग जाय नियुक्त हुए थे। उम कैकेयोपाख्यानमें तो यह गजाका अपराध माना जाता था। यह भी कहा है कि-'मेरे राज्यमें क्षत्रिय | "वेदवेत्ता ब्राह्मण चौर्य-कर्म करने लगे न तो किसीसे याचना करते हैं और न : नो गजा उसका निर्वाह करे । ऐसा करने अध्यापन कराते हैं। वे दूसरोंको यज्ञ- पर भी यदि वह उस कामको न छोड़े याग भी नहीं करवाते। मतलब यह कि तो उसे राष्ट्रसे निकाल दे।" इस प्रकार महाभारतके समयतक ब्राह्मणों के विशेष ब्राह्मण लोग, आजकलको भाँति, तरह अधिकारोंको न किसीने छीना था और तरह के व्यवसाय उन दिनों भी करते थे। न उनसे काम लिया था । अव देखना। यह बात नहीं कि इस प्रकारके रोज़- चाहिये कि ब्राह्मण अपने कर्तव्योंको कहाँ- गारोको ब्राह्मण लोग सिर्फ आपत्तिके तक करते थे। यह बात नहीं कि सभी कारण ही करते थे: किन्तु इसका कारण ब्राह्मण वेदाध्ययन करते रहे हों और | तो स्वभाव-वैचित्र्य ही था। ब्राह्मणोंमें अग्नि सिद्ध रखते हो। ऐसे, कोका स्वभावसे ही जिस वैराग्य और शान्तिका त्याग करनेवाले, ब्राह्मण समाजमें थे। प्रभाव रहना चाहिए, उसकी कमी हो गई यह बात तो साफ़ कह दी गई है कि थी और लोगोंके भिन्न भिन्न काम करके, वेदाध्ययन और अग्न्याधान न करनेवाले अपनी व्यावहारिक स्थितिको उत्कर्ष पर ब्राह्मण शूद्रतुल्य समझे जायँ और पहुँचानेका साहजिक मोह ब्राह्मणोंको धर्मात्मा राजा उनसे कर वसूल करे तथा होता था । यह श्राशा थी कि आपत्ति प्राने अंगारके काम भी कगवे। इससे झान पर ब्राह्मण अपनेसे नीचे वर्णके धर्मका होता है कि स्वकर्मनिरत ब्राह्मणोंसे कर अवलम्ब करके गुज़र कर ले। अर्थात् , नहीं लिया जाता था और बेगार भी. उसे क्षत्रियका काम करके सेनामें नौकरी माफ थी। नहष राजाने ऋषियोको अपनी कर लेनेकी इजाजत थी। प्राचीन कालमें पालकीमें लगा दिया था। भले ही उसने क्षत्रिय-वृत्तिके ब्राह्मण बहुत रहे होंगे। यह अपराध किया हो, किन्तु महाभारतके एक तो ब्राह्मण और क्षत्रियके बीच प्राचीन समयमें यह तत्त्व मान्य था कि केवल कालमें भेद ही थोड़ा था: दुसरे ब्राह्मण