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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२३१

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  • प्राश्रम-व्यवस्था ।

२०५ भाव उपजता है, और पमेश्वरका भजन मुनिः'-जहाँ सायङ्काल हो वहीं ठहर तथा आत्माका चिन्तन करना तो जाता है जानेवाले मुनि या संन्यासी प्राचीन छूट,सङ्घके अधिपति होनेकी महत्त्वाकांक्षा समयसे लेकर महाभारत कालतक पाये उत्पन्न हो जाती है । 'संन्यासीको सूने जाते थे । सनातनी संन्यासियोंके कपड़े घर या अरण्यका श्राश्रय ग्रहण करना भगवे रङ्गके होते थे और बौद्धोने अपने चाहिये' इस प्राचीन नियमको छोड़कर | संन्यासियोको पीले वस्त्र दिये। भगवे वस्त्र बौद्ध लोग बड़े बड़े सञ्चारामों में रहने लगे। धारणकर ठगोंका पेशा करनेवाले लोग राजा लोग उस समय इनके लिये सङ्घा- भी महाभारतके समय थे। यह बात उस राम बनवा देते थे । इन स्थानों में रहनेके | नियमसे सिद्ध होती है जिसमें कहा गया कारण उन्हें ऐश-आरामकी श्रादत पड़ गई। है कि राजा लोग भिन्न भिन्न स्थानों पर प्राचीन नियम था कि संन्यासीको एक संन्यासीके वैषमें अपमे गुप्तचरोंको भेजे । गाँवमें एक दिनसे अधिक न रहनाचाहिये: महाभारतके समय स्त्रियोंके संन्यास इसके बदले वौद्ध संन्यासी लोग भिन्न लेनेके भी उदाहरण हैं । उपनिषदोंमें जिस भिन्न गाँवोके समीप सङ्घारामों के निवासी तरह गार्गी और वाचक्नवी आदि तत्त्वज्ञा हो गये । संन्यासीको वहीं भिक्षा माँगन- ब्राह्मण स्त्रियाँ वर्णित हैं, उसी तरह महा- के लिये जाना चाहिये जहाँ श्राव भगत- भारतमें सुलभा नामकी एक संन्यासिनी- क साथ भिक्षा न मिले। किन्तु बौद्ध भिक्षु का भी वर्गान है। जनकके साथ उसने जो इसके बिलकुल विपरीत धनवान उपा- वक्तत्व-पूर्ण और तत्त्वज्ञान-पूर्ण संवाद सकोंके यहाँ दावत उड़ाने लगे। संन्यासी-किया, उसका वर्णन शान्ति पर्वके ३२०वें को न तो द्रव्य-संग्रह करना चाहिये और न अध्यायमें है । संवादके अन्त में उसने सामान जमा करना चाहिये: परन्तु सङ्घा- कहा है कि मैं क्षत्रिय-कन्या हूँ: मुझे योग्य रामके बौद्ध भिक्षु लोग सङ्घारामकी पति नहीं मिला, इस कारण गुरुसे मैंने व्यवस्थाके लिए जागीरमें बड़े बड़े गाँव मोक्षशास्त्रकी शिक्षा ग्रहण करके नैष्टिक और जमीन लेने लगे। मतलब यह कि ब्रह्मचर्यका श्राश्रय लिया है और मैं यति- सनातन-धर्मी संन्यासियोंके जो आवश्यक धर्मस रहती हैं। सारांश यह कि प्राचीन और कड़े नियम थे, उनको छोड़कर कालमें क्षत्रिय-स्त्रियाँतक विवाह न करके बौद्ध भिक्षुओंका मानों पेट भरने अथवा | एकदम संन्यास ले लिया करती थीं। जागीरके मालिक बननेका पेशा हो गया। परन्तु ऐसा मालूम होता है कि महा- इस कारण बौद्ध संन्यास बहुत जल्द | भारतके समय इसका चलन न रहा हास्यास्पद बन गया। इसी प्रकारकी श्रव- होगा, क्योंकि प्रारम्भमें ही यह बात कह नति आगे चलकर सनातन धर्ममें भी हुई दी गई है कि सुलभा सत्ययुगकी है। और पुराणोंने कलियगमें संन्यास लेनेकी यह एक महत्त्वका प्रश्न है कि मोक्ष- मनाही कर दी। धर्मकी प्रामि संन्यास आश्रममें ही है या यह इतिहास महाभारतके बादका । अन्य श्राश्रमों में भी । इसी प्रश्न पर जनक- है। यह माननमें कोई क्षति नहीं कि सुलभाका सम्बाद दिया गया है । उसका संन्यासके लिए आवश्यक कठोर नियम निर्णय निश्चयात्मक नहीं है। फिर भी महाभारतके समय प्रत्यक्ष बर्ते जाते थे। उसका प्राशय यह मालम होता है कि इसमें सन्देह नहीं कि 'यत्र सायंगृही। मानकी ओर ले जाने में संन्यास ही समर्थ