पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२३५

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शिक्षा-पद्धति है २०६ बितावे । धर्मतत्त्वके शानका सम्पादन लोग शिप्योको बहुत ही सताते रहे करते हुए गुरुके घर अथवा गुरुके पुत्रके : होंगे। आदि पर्वके तीसरे अध्यायमें यह पास रहे। गुरुके सो जाने पर सोवे और वर्णन है कि धौम्य ऋषि, वेद नामक उनके जागनेसे पहले ही उठ बैठे । शिष्य अपने शिष्यको, हलमें भी जोनता था। अथवा दासको जो काम करना चाहिये तथापि उसे ज़रा भी खेद न हुआ । गुरुके वह करे । काम कर चुकने पर गुरुके पास घर जो कष्ट हुए थे, उनका स्मरण जाकर अध्ययन करे। खूब पाक-साफ करके वेदने "अपने शिष्योंको गुरु-सेवा और कार्य-दक्ष रहे । गुरुके भोजन किये जैसा दुर्धर काम कराकर, ज़रा भी कर बिना स्वयं भोजन न करे । गुरुके दाहिने न दिया ।" प्रत्येक शिष्यको न्यूनाधिक चरणको दाहिने हाथसे और बायें चरण- काम तो निस्सन्देह करना पड़ता था। को बायें हाथसे छूए । ब्रह्मचारीके लिये फिर, गुरुके स्वभावके अनुसार, चाहे जिन गन्धों और रसीका सेवन करना उसमें कष्ट अधिक हो या कम । गुरुको मना है, उनका सेवन न करे । शास्त्रमें सन्तुष्ट रखकर विद्या सम्पादन करनी ब्रह्मचर्य के जितने नियम बतलाये गये हैं पड़ती थी। उस समय यह समझा जाता उन सबका पालन करे । इस रीतिसे था कि गुरुकी कृपा बिना विद्यानावेगी। गुरुको प्रसन्न करके और उसे दक्षिणा इस कारण, उस ज़मानेमें, गुरुका अत्यन्त देकर यथाविधि समावर्तन करे । फिर श्रादर था। गुरुपुत्र या गुरुपत्नीका आदर गुरुकी आशासे विवाह करना चाहिये" भी खूब होता था। गुरुपत्नीके सम्बन्धमें (शां०२४३ श्र०)। शिष्य कभी कुव्यवहार न करे, इस नियम- ____ इस वर्णनसे जान पड़ता है कि का होना साहजिक था । गुरुपत्नी-गमन शिप्यके भोजन करनेकी व्यवस्था बहुधा महापातकोंमें माना गया है । इस महा- गुरुके ही घर होगी। शिष्यको गुरुके पातकके लिये देहान्त-दण्ड ही प्रायश्चित्त घर कुछ काम करना पड़ता होगा । था। स्मृतियोंकी आशा है कि गुरुपत्नीको इसमें सन्देह नहीं कि आजकलकी तरह दगडवत करना हो तो यह भी दूरसे ही पढ़ाईकी फीस न ली जाती थी और करे-पैर छूकर नहीं। इस प्रकार मुक्त भोजनके लिये भी कुछ न देना पड़ता शिक्षा देनेकी प्रथा प्राचीन कालमें थी: था; परन्तु उसका यह पवज़ बहुत ही किन्तु सम्पूर्ण पढ़ाई हो आने पर गुरुको कठोर था । मालूम होता है कि बहुतेरे दक्षिणा देनेकी भी रीति थी। यद्यपि प्राज- ब्राह्मण-विद्यार्थी भिक्षा भी माँगते थे। कलकी भाँति गुरुको या डाकुरको पेशगी स्मृतियों में क्षत्रिय और वैश्यके लिए फीस देनेका रवाज न था, तथापि काम भिक्षाकी मनाही है। फिर भी गुरुके घर हो चुकने पर गुरु-दक्षिणा देना आवश्यक काम करना सभी विद्यार्थियोंके लिये था । साधारण रूपसे दो गोएँ ही दक्षिणा- अनिवार्य था; और इस तरह गुरुके यहाँ में दी जाती थी। यह भी कुछ अत्यन्त श्रीकृष्ण श्रादिके भी काम करनेका वर्णन कठिन न था। कुछ गुरु तो बिना दक्षिणा हरिवंशमें है। इस प्रकार गुरुके घर लिये हो 'चलो हो गई। कहकर शिष्यको कामकाज करनेवाले विद्यार्थीका शरीर घर जानेकी श्राक्षा दे दिया करते थे । ग्खूब हट्टा कट्टा होना चाहिये। यह एक जान पड़ता है कि गुरुके घर विद्या पढ़ते बड़ा भारी लाभ ही था। किन्तु कुछ गुरु समय साधारण रूपसं अपने घर जामेकी