पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२३७

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  1. शिक्षा-पद्धति

यह साफ नहीं कहा गया कि शद्रोंके लिये का भी उन्हें पूर्ण अधिकार था। महा- प्राश्रम-धर्म नहीं है। चारों वर्गों के लिये भारत-कालके पश्चात् बौद्ध और जैन संन्यासाश्रम विहित है या नहीं ? यह धर्मका प्रसार हुआ, इस कारण वर्णभेद प्रश्न महाभारतके समय जैसी अनिश्चित उठ जानेसे जातियाँ गड़बड़ हो गई: और स्थितिमें था,वैसी ही अनिश्चित स्थितिमें एक उन लोगोंने वेदविद्याका माहात्म्य भी यह प्रश्न भी देख पड़ता है कि शुद्रोको घटा दिया। अतएव परिस्थिति बदल गई। विद्या पढ़ाई जाय अथवा नहीं । यह तो फिर तो अन्य वणोंने ही वेद पढ़नेका निश्चित ही था कि उन्हें वेदविद्या न पढ़ाई सिलसिला तोड़ दिया, इस कारण परि. जायाफिन्त और विद्याप्रोके पढ़ानेकी स्थितिमें अन्तर पड़ गया। ममाही न होगी। इस सम्बन्धमें एकलव्य ___ अब एक महत्वका प्रश्न यह है कि का दृष्टान्त ध्यान देने योग्य है । द्रोणकी भारती-कालमें, वर्तमान कालके विश्व- कीर्ति सुनकर अनेक राजपुत्र उनके पास विद्यालयोंकी तरह, ऐसी बड़ी २ संस्थाएँ धनुर्विद्या सीखने श्राये। उस समय थीं या नहीं जिनमें बहुतमे विद्यार्थी एकत्र व्याधोंके राजा हिरण्यधनुका बेटा एक- रहते हो । महाभारतके आदि पर्वमें कराव लव्य भी उन्हें गुरु बनाने पाया। नब, कुलपतिके आश्रमका वर्णन है। उससे हमें अन्य शिष्योंके लाभके लिये, धर्मज्ञ इस ढङ्गके विद्यालयकी कल्पना होती है। द्रोणने उसको शिष्य बनाना स्वीकार नहीं मालिनी नदीके किनारे, इस सुन्दर आश्रम किया। श्रादिपर्वके १३२ में अध्यायमै | अथवा ब्राह्मणोंकी बस्तीमें, "अनेक ऋषि मुख्य बात यही है जो ऊपर लिखी गई ऋग्वेदकं मन्त्र पढ़ते थे । व्रतस्थ ऋषि है। यह बात सब लोगों में अभीतक पाई सामवेदका गान करते थे। साम और जाती है। न तो जापानी लोग अपनी अथर्वके मन्त्रीका पद-क्रम सहित उच्चारण अस्त्रविद्या दसरं देशवालोंको सिखाते हैं सुनाई दे रहा था । वहाँ पर एकही शाखा और न जर्मन लोग अंगरेजोको। चारों में अनेक शाखाओंका समाहार करनेवाले भोर तत्त्व एक ही है। किन्तु वह यदि और अनेक शाखाओकी गुण-विधियोंका ब्याध न होता, किसी और शद्र जातिका समवाय एक ही शाखामें करनेवाले होता, तो आचार्य द्रोण उसे अवश्य ऋषियोंकी धूम थी । वहाँ पर मोक्षशास्त्र- सिखला देते । अस्तु: व्याध-पुत्रने द्रोणको के ज्ञाता, प्रतिक्षा,शङ्का और सिद्धान्त आदि मनसे गुरु मानकर मिट्टीकी उनकी मूर्ति जाननेवाले, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और बनाई और उसी मूर्तिकी वन्दनाकर उसने ज्योतिषमें पारङ्गत, और द्रव्य-गुण-कर्मकी धनुर्विद्याका अभ्यास किया। इतने पर पूरी व्यवस्था जाननेवाले ऋषियोका भी द्रोण गुरु-दक्षिणा माँगनसे नहीं चूके। जमाव था । कार्य-कारण नियमोंके शाता, जहाँ इस प्रकारकी भीति या परराज्यके पशु-पक्षियोंके वाक्यों और मन्त्रोंके रहस्य- अनार्य लोगोंका विचार आड़े न आता के जानकार, अनेक शास्त्रोंका पालोड़न होगा, वहाँ शद्रोको भी, वेदके सिवा, अन्य करनेवाले और उन पर प्रामाणिक रूपसे विद्यायें सिग्वलाई जाती होगी। महा- भाषण करनेवाले हज़ारों ऋषियोंकी वहाँ भारतसे स्पष्ट देख पड़ता है कि त्रिवर्णके भीड़ थी । इसीमें नास्तिक-पन्यों के लोगोंकी सारी विद्यायें अवश्य सीखनी मुखियोंका वाद-विवाद मिल जानेसे वह चानिएँ। यह सखी थी और वेदविद्या-आवाज बहुत ही मनोहर सुनाई पड़ती