२३० ® महाभारतमीमांसा बात माननी पड़ती है। इसमें विशेष रूप- शास्त्रके ग्रन्थों, स्मृतियों और गृह्यसूत्रोंसे से ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये भी सिद्ध है कि विवाहके आठ भेद हैं। अनेक पति विभिन्न कुटुम्बोंके नहीं, एक महाभारतमें भी (प्रा० अ०७४ ) विवाह ही कुटुम्बके सगे भाई होते थे और आज- के पाठ भेद वर्णित हैं। कल भी हिमालयकी तरफ़ पहाड़ी लोगोंमें ब्राह्मो देवस्तथाचार्षः प्रजापत्यस्तथासुरः । कुछ स्थानों पर जहाँ यह प्रथा जारी है, गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चष्टमः स्मृतः॥ वहाँ भी यही बात है। अर्थात इस रीतिमें परन्त दैव और पार्षका अन्तर्भाव किसी प्रकारकी दुष्टता नहीं उपजतो और ब्राह्ममें ही होता है। इनमें कन्यादान ही भिन्न भिन्न कुटुम्बोंमें वैमनस्य उपजने- है। पैशाच यह एक नामका विवाह-भेद की आशङ्का भी नहीं रहती । विवाहित देख पड़ता है। इस कारण विवाहके स्त्रीको किसी तरहसे कट होनेकी सम्भा- मुख्य भेद पाँच ही समझने चाहिएँ। वना नहीं होती । भारती आर्योंमें पहलेसे यही भेद बहुधा प्रचलित रहे होंगे। अनु० ही इस प्रथाके विषयमें प्रतिकुल मत था। पर्वके ४४वें अध्यायमें ब्राह्म, चात्र,गान्धर्व, उपर्युक्त वैदिक वचनके आधार पर यह आसुर और राक्षस यही पाँच भेद बत- बात पहले लिखी जा चुकी है। कुछ लाये हैं। ऊपर बतलाये हुए दैव, पार्ष चन्द्रवंशी आर्योके द्वारा लाई हुई वह प्रथा और प्राजापत्यके बदले क्षात्र विवाह भरतखण्डमें प्रचलित नहीं हुई। महा- कहा गया है और इसमें विवाहका भारतके समय भारतो आर्य लोगोंमें वह । अन्तिम भेद 'पैशाच' बिलकुल ही निर्दिष्ट बिलकुल न थी। महाभारतकारके लिये नहीं है। अनुशासन पर्वमें बतलाये हुए एक द्रौपदीका पाँच पाण्डवोंकी स्त्री पाँच भेद ही ऐतिहासिक दृष्टिसे सर्वत्र होना एक पहेली ही था; और इसका प्रचलित थे और इनमेंसे तीन तो प्रशस्त निराकरण करनेके लिये सौतिने महामारत- ' तथा दो अप्रशस्त माने जाते थे। में दो तीन कथाएँ मिला दी हैं । विशेषतः पञ्चानां तु त्रयोधाःद्वावधयो युधिष्ठिर। कुन्तीका बिना देखे भाले यह श्राशा दे। दोनों जगह ऐसा उल्लेख है। इसमें डालना कि जो भिक्षा ले आये हो उसे सन्देह नहीं कि इनके भिन्न भिन्न प्रकारके बाँट लो और तदनुसार पाँचों भाइयोंका नाम भिन्न भिन्न लोगोंके अनुसार पड़ एक ही खोको अपनी अपनी स्त्री बना गये हैं। इस विषयमें यहाँ पर विस्तार- लेना बहुत ही विचित्र है। यधिधिरके से विचार किया जाता है। महाभारतक पूर्वोल्लिखित कथनानुसार मानना चाहिये उदाहरणसे स्पष्ट देख पड़ता है कि यद्यपि कि पूर्व समयमें यह प्रथा कुछ लोगोंमें थी। पहलेपहल भिन्न भिन्न लोगोंके विवाहके परन्तु ऊपर सौतिने जो प्रयत्न किया है ये भेद उत्पन्न हुए होंगे, तो भी भारत- उससे यह भली भाँति सिद्ध है कि महा-कालमें वे पार्यों में प्रत्यक्ष रूपसे आचरित भारतके समय भरतखएडसे वह उठ थे। इसके सिवा विवाह-संस्थाका,उत्क्रान्ति- गई थी। दृष्टिसे, जो उच्चसे उच्च भेद होता गया विवाहके भेद । यदि इन्हें उसीकी पाँच श्रेणियाँ कहा जाय तो भी ठीक हो सकता है। सबसे कनिष्ट अब विवाहके भिन्न भिन्न भेदोका प्रकार गक्षस विवाह है। राक्षस विवाह- विचार कीजिए । इन दिनोंके सभी धर्म का अर्थ जबदस्ती लड़कीको ले पाना है।
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