२३२ 8. महाभारतमीमांसा * क्षत्रियोंको युद्ध-कर्ममें निष्णात होने के लिये में उसकी इतनी ही विधि देख पड़ती यह प्रकार बहुत ही अनुकूल होता होगा। है कि परस्पर प्रेम होकर एक दूसरेके विवाहके पाँच भेदों में इसके क्षात्र नामसे गलेमें हार डाल दिया गया। इसमें यह लिये जानेका कारण भी यही है। इस भी आवश्यक नहीं कि इच्छित वरको स्पर्धाके काममें ब्राह्मण भी शामिल होते बाप कन्या दे । गान्धर्वका यह एक भेद थे। द्रौपदीके स्वयंवर-वर्णनसे यह बात हुश्रा । परन्तु साधारण स्वयम्बरका भेद प्रकट है; क्योंकि स्वयंवरके समय पाण्डव गान्धर्ष विधिमें ही शामिल है। अनेक लोग ब्राह्मण-वेशमै आये थे और ब्राह्मणोंमें राजाओका जमाव है। उसमें जो पसन्द ही बैठे थे। मतलब यह कि क्षात्र विवाह आ गया उसके गलेमें जयमाल डालने मायण और क्षत्रियोंके लिये विहित था। पर "पिता उसका अभिनन्दन करे और इस विवाह-भेदको यद्यपि स्वयंवर कहा बेटीने जिसे पसन्द किया है, उस वरको गया है, तथापि वह दर-असल स्वयंवर न कन्या अर्पण कर दे ।” (अनु० पर्व) था। क्योंकि जो कोई बाज़ी जीत ले इसका उत्कृष्ट उदाहरण नल-दमयन्ती हैं। उसीको कन्या देनी पड़े और बहुत करके दुष्यन्त-शकुन्तलाके गान्धर्व विवाहमें और लड़कीका पिता ही बाज़ी लगाता था। नल-दमयन्तीके स्वयम्यरमें इतना ही भेद सीता-स्वयंवरके समय जनकने ही धनुष है कि यह स्वयम्बर सबके धागे होता है: तोड़नेका प्रण लगाया था और द्रौपदीके और बेटीका बाप-तदनुसार-कन्या- स्वयंवरके अवसर पर भी दुपदने शर्त दान करता है । इस प्रकारका विवाह लगाई थी । अर्थात् कन्याको अपने मुख्यतः क्षत्रियोंके लिए कहा गया है। विवाहके सम्बन्धमें किसी प्रकारकी स्वाधी- यह स्वयम्बर-विवाह पहले भारती श्रा?में नता न थी। बाप जिसे दानमें दे दे उसीके | महाभारतके समयतक प्रचलित था । साथ विवाह होनेका मार्ग उसके लिये सिकन्दर के साथी यूनानी इतिहास-कारों- खुला था। इस कारण विवाहके इस भेदको ने यह बात भी लिखी है। उन्होंने लिखा योग्य रीतिसे न तो स्वयंघर कहा जा है कि पञ्जाबके कठ जातिके क्षत्रियोंकी सकता है और न गान्धर्व ही । अब स्त्रियाँ अपने लिए श्रापही वर पसन्द विवाहके तीसरे भेद पर विचार करना करती हैं। है। यह गान्धर्व नामसे प्रसिद्ध है। इसमें प्रामुर। लडकीको अपनी मर्जीसे दुलहको पसन्द करनेका अधिकार मुख्य है । इस प्रकारके अब श्रासुर पर विचार करेंगे। इस विवाह गन्धवों में होते थे, इस कारण इस विवाहमें कन्या खरीदी जाती थी । रीतिका नाम गन्धर्व-विवाह हो गया। "कन्याके प्राप्त लोगोंको और स्वयं कन्या- हम पहले कह ही चुके हैं कि गान्धर्व और को खूब धन आदि देकर मोल ले ले और अप्सरा, हिमालयमें रहनेवाली, मानवी तब उसके साथ विवाह करे। ज्ञाता तुरुष आतियाँ मानी जा सकती हैं । इनमें प्रच- कहते हैं कि यह धर्म असुरोका है।" खित गान्धर्ष-विवाह, आर्य लोगोंमें विशे- अतएव इसका नाम आसुर हो गया। पतः क्षत्रियों में होने लगा। दुष्यन्त और यह स्पष्ट वचन महाभारतमें ही है। यदि शकुन्तलाका विवाह उसका मुख्य उदा- ऐतिहासिक रीतिसे विचार किया जाय हरण है । दुण्यन्त-शकुन्तलाके उपाख्यान- कि असुर कौन है, तो वे असलमें पर्शियन
पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/२५८
दिखावट