- ज्योतिर्विषयक ज्ञान । ®
४२६ मालूम था कि ग्रह वक्री होते हैं तथा एक समय अथवा महाभारतके समय ग्रहोंकी स्थान पर स्थिर होते हैं। महाभारतमें ग्रहोंके गति बतलाई जाती थी और उनके फल बहतेरे उल्लेख हैं। यहाँ उन सबको उद्धत नक्षत्रों परसे कहे जाते थे, क्योंकि उस करनेकी अवश्यकता नहीं । महाभारतके समय राशियोंका तो बोध ही न था। दूसरे, समय यह कल्पना थी कि कुछ ग्रह,विशेष- ग्रहोंकी वक्र और वक्रानुवक्र गति महा- तया शनि और मङ्गल, दुष्ट होते है। भारतमें तथागर्गसंहितामें भी बतलाई गई माल लाल रङ्गका और रक्तपात करने- है। तीसरी बात यह है कि श्वेतमह अथवा बाला समझा जाता था। अकेला गुरु धूमकेतु महाभारतके समय ज्ञात था और ही शुभ और सब प्राणियोंकी रक्षा वह अत्यन्त अशुभ माना जाता थ । इस करनेवाला माना जाता था । कई एक श्वंतग्रहसे और कितने ही काल्पनिक ग्रहों दो ग्रहों और नक्षत्रोंके योग अशुभ | अथवा केतुओंकी कल्पना महाभारत- समझे जाते थे। कालमें हो गई थी एवं उनका उल्लेख इन यथा दिवि महाघोरी राजन् बुधशनैश्चरौ। अशुभ चिह्नोंमें है । इसी लिए 'सप्त महा- (भीष्मपर्व अ० १०४) ग्रहाः सदृश वचनोको सन्दिग्ध मानना इस वचनमें बुध और शनैश्चरका पड़ता है । चौथी बात यह है कि महा- योग भयङ्कर माना गया है। भीष्मपर्वके भारत-कालमें राहुको एक ग्रह माननेकी प्रारम्भमें व्यासने धृतराष्ट्रको भयङ्कर कल्पना हो गई थी-अर्थात् उस समय प्राणि-हानिकारक जो दुश्चिह्न बतलाये हैं, यह धारणा थी कि राहु क्रान्तिवृत्त पर उनमें और उद्योगपर्व श्र०२४३ के अन्त-घमनेवाला. तमोमय. और न देख में इससे प्रथम श्रीकृष्ण और कर्णकी पड़नेवाला ग्रह है। बिना इसके यह भेंट में जिन दुश्चिह्नोंके होनेका कर्णने वर्णन कथन सम्भव न होता कि राहु सूर्यके किया है, उनमें ग्रहों और नक्षत्रोंके पास पाता है । महाभारतमें, कुछ स्थलों अशुभ योगोंका विस्तारके साथ वर्णन पर, राहुके लिए सिर्फ ग्रह शब्द ही किया गया है । गर्गके ग्रन्थमें वर्णित प्रयुक्त हुश्रा है। राहुकी पुरानी कल्पना योगों से लेकर बहुधा सौतिने इन योगों-भी-यानी यह कल्पना कि वह सूर्य-चन्द्र को महाभारतमें शामिल कर दिया होगा। पर आक्रमण करनेवाला एक राक्षस है- क्योंकि गर्ग-सम्बन्धी उल्लिखित अवतरण- महाभारतमें है । क्योंकि एक स्थान पर में 'उत्पाता दारुणाश्चैव शुभाश्च' कहा गया राहुका कबन्ध स्वरूप वर्णित है । सूर्य के है। अर्थात् अशुभ अथवा भयङ्कर उत्पातो खग्रास-ग्रहणके समय ऐसा प्रत्यक्ष अनु- और शुभ शकुनोंका ज्ञान गर्गको था। भव होने पर कि राहु केवल कालिखकी यानी इनकी परिगणना गर्गने पहले कर बाढ़ है, वह बिना सिरका राक्षस मान ली थी। गर्ग संहितामें भी आजकल ये लिया गया और उसके रहनेका स्थान शुभाशुभ योग पाये जाते हैं । ये अशुभ | समुद्र माना गया। योग मूल भारती-युद्ध के समयके लिखे पत्र मध्ये समुद्रस्य कबन्धः प्रतिदृश्यते। हुए नहीं हैं. इस विषयमे पहले विवेचन स्वर्भानोःसूर्यकल्पस्य सोमसूर्यों जिघांसतः॥ हो ही चुका है । तब यहाँ उन योगोंके (उद्योगपर्व १९०) लिखनेकी आवश्यकता नहीं । हाँ, यहाँ इसमें राहुके धड़को पश्चिम समुद्रमें पर यह कह देना चाहिए कि गर्गके खड़ा वर्णन किया गया है । मालूम नहीं