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महाभारतमीमांसा

ॐ महाभारतमीमांसा * "ब्रह्मलोकसे भी ऊर्ध्वभागमें सनातन, कालमें भी पञ्चमहापातक माने जाते थे। तेजोमय, विष्णुका उत्कृष्ट स्थान है। जिनके वे पातक ब्रह्म-हत्या, सुरा-पान, गुरु-तल्प- अन्तःकरण विषयों में जकड़ नहीं गये हैं गमन, हिरण्य-स्तेय और उनके करमे- बेही वहाँ जाते हैं। जो लोग ममत्व-शून्य, वालोंके साथ व्यवहार रखना है। इनका अहङ्कार-विरहित, द्वन्द्व-रहित, जितेन्द्रिय : वर्णन उपनिषदोंमें भी है। कुछ अवसर और भ्याननिष्ठ हैं वही वहाँ जाते हैं।" ऐसे अपवादक होते हैं कि उन पर किया अर्थात्, यह लोक शानियों और योगियों- हुश्रा कर्म पातक नहीं समझा जाता। इन का है। प्रकट है कि इस लोककी कल्पना अपवादक प्रसङ्गोका वर्णन इसी अध्यायमें वर्गसे बढ़कर है । परन्तु इन लोकोंकी है। वेद-पारङ्गत ब्राह्मण भी यदि शल कल्पना किस तरह की गई है, यह बात लेकर, वध करनेकी इच्छासे आये, तो यहाँ नहीं देख पड़ती। युद्ध में उसका वध करनेवालेको ब्रह्महत्या- प्रायश्चित्त । 'का पातक नहीं लगता । मद्य-पानके सम्बन्धमें कहा गया है कि प्राणका ही पुण्य करनेवाले स्वर्गको जाते हैं और नाश होता हो तो उसे बचानेके लिए पापी लोग नरकको जाते हैं, इस कल्पना- और यदि अशानसे मद्य-पान कर लिया के साथ ही पाप-कर्मके लिए प्रायश्चित्त- हो तो धर्मनिष्ठ पुरुषोंकी श्राशासे वह की कल्पनाका उद्गम होना सहज है। दुबारा संस्कार करने योग्य होता है। महाभारत-कालमें यह बात सर्वतोमान्य : गुरुकी ही प्राशासे यदि गुरु-स्त्री-गमन थी कि पापके लिए प्रायश्चित्त है। पाप किया हो तो वह पाप नहीं है। यहाँ पर दो प्रकारके माने जाते थे। एक तो वे यह अद्भुत बात कही है कि उद्दालकने पातक जो अज्ञानसे किये जाते है और अपने शिष्यके द्वारा ही पुत्र उत्पन्न करा दसरं वे जो जान-बूझकर किये जाते हैं। लिया था। परोपकारके लिए अन्न चुराने अज्ञान-कृत पातकके लिए थोड़ा प्रायश्चित्त वाला, परन्तु उसे स्वयं न खानेवाला, रहता है। स्मृतिशास्त्रमें, महाभारत-काल- मनुष्य पातकी नहीं होता । अपने अथवा के अनन्तर, जो प्रायश्चित्त-विधि बतलाई दृसरेके प्राण बचानेके लिए, गुरुके काम- गई है, वैसी ही महाभारतमें थी । शान्ति के लिए, और स्त्रियोंसे अथवा विवाहमें पर्वके ३४ वे अध्यायमें विस्तारके साथ प्रसन्य भाषण किया हो तो भी पातक नहीं बतलाया गया है कि प्रायश्चित्तके योग्य लगता। व्यभिचारिणी स्त्रीको अन्न-वल कौन कौनसे कर्म हैं: और ३५ वें अध्याय- देकर दूर रखना दोषकारक नहीं है। इस में भिन्न भिन्न पापोंके लिए भिन्न भिन्न ! तपसे वह पवित्र हो जाती है। जो सेवक प्रायश्चित्त लिखे गये हैं। कुछ कर्म करनेसे काम करने में समर्थ न हो उसे अलग कर पाप होता है और कुछ कर्म न करनेसे दिया जाय तो दोष नहीं लगता। धेनुके भा पाप लगता है। इस अध्यायमें पापके बचानेके लिए जङ्गल जलानेका दोष ३४ भेद गिनाये हैं। इनमें घर जला देने- नहीं बतलाया गया। ये अपवादक-प्रसङ्ग काला, वेद बंचनेवाला और मांस बंचन- ध्यान देने योग्य हैं। वाला माना गया है। ऋतु-कालमें स्त्री. महाभारत-कालमें प्रायश्चित्तके वही गमन न करना भी पातक माना गया है। ' भेद थे जो कि इस समय स्मृतिशास्त्रमें पहले लिखा जा चुका है कि महाभारत- विद्यमान हैं। कुछ बातोंमें फर्क होगा,