- महाभारतमीमांसा *
- इण्डियन पेनल कोडके अनुसार प्राज्ञा पाई जाती है कि मनुष्यको अपने ७ वर्षको अवस्थातक कुछ भी अपराध कर्तव्य-धर्मकी रक्षा प्राण देकर भी करनी नहीं है, फिर ७ से १४ तक बुद्धिकी पक्कता- चाहिए । भारत-सावित्री में कहा है- के अनुसार,पाप-पुण्यकी पहचानके मान- न जातु मोहान्न भयान्न लोभात् से, अपराध अनपराध निश्चित होता है। धर्म त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः। प्रस्तः प्रायश्चित्तकी कल्पनासे शरीरको फिर, अपने अथवा पराये प्राण केश देनेकी बात क्यों कही गई? इसका बचानेके लिए ऊपर जो झूठ बोलनेको थोडासा विचार करने पर असल कारण पातक नहीं माना है वह क्यों ? प्रभ शान हो जायगा। प्रायश्चित्तका अर्थ केवल अत्यन्त महत्त्वका है: इसका विचार अन्य मनका प्रायश्चित्त नहीं है, किन्तु उसमें स्थान पर होगा। कुछ न कुछ देह-दण्ड रहना चाहिए। कई एक प्रायश्चित्तोंमें तो देहान्त पर्यन्त संस्कार । दण्ड है; तब ऐसे प्रायश्चितोंकी क्या मावश्यकता है ? यह हेतु नहीं हो सकता यह कहीं नहीं कहा गया कि महा- कि दूसरों पर इसका असर पड़े--चे भारत-कालमें भिन्न भिन्न कितने संस्कार इतने डर जायँ कि पाप-मार्गसे परावृत्त थे; तथापि कई एक संस्कारोंका वर्णन हो जायँ। फिर प्रश्न होता है कि प्राय- स्थान स्थान पर आया है । उससे चित्त करनेवालेको इससे क्या लाभ होता ' प्रकट है कि गृह्यसूक्तोक्त धर्ममें गृह्य- है?हमारी रायमें इसका कारण यह धारणा संस्कार हुआ करते थे । पहले, जन्मते दिखाई देती है कि प्रायश्चित्तके द्वारा ही जान कर्म-संस्कारका नाम विशेषतासे इसी देहसे और इसी लोकमें दण्ड भोग- पाता है। विवाह प्रौढ़ावस्थामें ही होते थे। कर पापोंका वालन हो जानेसे मनुष्य , और विवाहमें ही पति-पत्नि-समागम फिर उन यातनाओंसे बच जाता है जो कि हुआ करता था और उस जमाने में उस पापोंके एवज़में यमलोकमें भोगनी पड़ती विधिसे गर्भाधान संस्कारका होना ठीक हैं । पापोंके लिए तो सज़ा होगी ही; वह ही है। जातकर्म संस्कारके पश्चात् चौल स्वयं यदि इमी लोकमें भोग ली जाय तो और उपनयन दोनों ही संस्कारोंका मनुष्यको नरक नहीं भोगना पड़ेगा-वह . उल्लेख महभारतम है। परन्तु वहाँ इनका अपने पुग्यसे स्वर्गको जायगा । यह विशेष वर्णन नहीं है । उपनयन वास्तवमें कल्पना बहुत ठीक ऊँचती है । यमयात- गुरुके घर पहुंचा देनेकी विधि थी और नावाली अथवा प्रायश्चित्तवाली देहदण्ड स्पष्ट देख पड़ता है कि इस विधिका की विधिसे धर्मशास्त्रका यह हेतु प्रकट माहात्म्य उस समय केवल संस्कारके होता है कि मनुष्यको पापाचरणकी ओर- ही नाते न था । इसके बाद विवाह- से भय बना रहे। संस्कारका लाभ है। इसका उल्लेख अनेक • पाप-कर्मका विचार करते हुप. जो स्थानों पर हुआ है और हम उसका अपवादक स्थान बतलाये गये हैं, उनका : विवेचन भी अन्यत्र कर चुके हैं। विवाह- मर्म क्या है ? यह अत्यन्त महत्त्वका प्रश्न के बाद दो संस्कार और हैं, वानप्रस्थ है। बड़े बड़े तत्त्वज्ञानियोतकको यह प्रश्न : और संन्यास । शान्तिपर्वमें इनका थोड़ा कठिन अँचता है । कई स्थलों पर यह सा वर्णन है। औदैहिक संस्कार अन्तिम