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महाभारतमीमांसा

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  • महाभारतमीमांसा

हैं। उसमें कहा गया है कि, इस सृष्टिके महाभारत-काल में यह कल्पना पक्की सड़ काल, धी, वासना तथा पाँच महाभूत हो गई थी कि कुछ तत्व मुख्य हैं और ये पाठ कारण हैं। यदि कोई कहे कि कुछ विकार हैं। साथ ही यह सिद्धान्त भी इनके अतिरिक्त कोई चेतन ईश्वर या पूर्णतया निश्चित हो गया था कि कुल अचेतन प्रधान कारण है तो उसका | | तत्व पश्चीस हैं । सांख्यका तथा ईश्वर- कथन असत्य है, फिर चाहे वह श्रुतिके वादी वेदान्तका अथवा योगका मेल आधार पर बोलता हो या तर्कके बल मिलानेके लिये महाभारतमें कहीं कहीं यह पर" । इसका मूल श्लोक यह है- कहनेका प्रयत्न किया गया है कि छब्बी- महाभूतानि पञ्चैते तान्याहुर्भूतचिन्तकाः। सवाँ तत्व परमात्मा है। कुछ लोगोंने तेभ्यःसृजतिभूतानि काल आत्मप्रचोदितः। पञ्चीसके बदले इकतीस तत्व करनेका एतेभ्यो यः परं ब्रूयादसद्व्यादसंशयम् ॥ प्रयत्न किया है। परन्तु वह सांख्यका (शा० ५-२७५) नहीं है। जनक और सुलभाके संवादमें उसके मतसे ये तत्व अनाद्यनन्त, सुलभाने यह प्रयत्न किया है और वह जनकके मतका खण्डन करनेके हेतुसे ही शाश्वत तथा स्वयंभू हैं। इससे यह विदित किया गया है। धर्मध्वज जनक पंचशिख. होता है कि उसके मतमें प्रकृति या प्रधान का अर्थात् सांख्याचार्यका शिष्य था और भिन्न नहीं हैं । तथापि महाभारत-काल- उसीके सिद्धान्तको काटनेके लिए यह में सांख्यके २४ तत्व अधिकांशमें सर्व- प्रयत्न किया गया है। इसमें ये तत्व बताये मान्य हुए थे और यह भी माना गया हैं-पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच झानेन्द्रियाँ, था कि पुरुष अतत्व है तो भी परिगणना- एक मन और एक बुद्धि कुल मिलाकर में वह पश्चीसवाँ है। ये चौबीस तत्व और पञ्चीसवाँ पुरुष महाभारतके कई बारह गुण: फिर तेरहवाँ सत्व, १४ वाँ स्थानों में वर्णित है। प्रकृति, महत्, अह- अहङ्कार, १५ वी वासना (यही वासना झार, और पाँच सूक्ष्म महाभूत ये आठ , अहङ्कारके बीच सोलह कलाओंसे उत्पन्न मूलतत्व, तथा मन सहित दस इन्द्रियाँ. हुए और श्रुतिमे वर्णित किये हुए जगत्- और पाँच स्थूल महाभूत ये सोलह . को पैदा करती है), १६वाँ अविद्यागुण, विकार, कुल मिलाकर चौबीस होते. १७ वीं प्रकृति, १८ वीं माया, १६ वाँ सुख- 'दुःख, प्रिय-अप्रिय आदि द्वन्द्वोका गुण, हैं। इनका और पुरुषका अथवा पञ्ची- : २० वाँ काल, २१ से २५ तक पंचमहाभूत सवे तत्वका महाभारतमें बार बार उल्लेख २६ वाँ सद्भाव, २७ वाँ असद्भाव, २-वी किया गया है। विधि, २६ वाँ शुक्र ३० वाँ बल, और ३१ (शा० अ० ३०३) वाँ पुरुष अथवा प्रात्मा। भगवद्गीतामे 'सविकारमुदाहृतं ! भगवद्गीतामें प्रकृति और पुरुष दोनों यह उल्लेख है। इससे यह स्पष्ट है कि शब्द यद्यपि सांख्य मतसे लिये गये हैं, इसमें विकारशब्दसंख्याओंकी परिभाषासे तथापि यह बात ध्यान देने योग्य है कि लिया गया है। परन्तु यह निश्चयपूर्वक (ग्रन्थकर्ताने ) उनके अर्थ अपने मिन्न नहीं कहा जा सकता कि इस शब्दका प्रयोग मतके अनुसार कैसे बदल दिये हैं । इच्छा, द्वेष आदिके लिए किया गया है, गीतामें शानका निरूपण करते समय पहले अथवा और शब्दोंके लिए है। तथापि यह कहा है कि-