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महाभारतमीमांसा

® महाभारतमीमांसा . % 3D - चतुर्थाश्रम संन्यास नहीं होता । सांख्य स्थिर करके शान्त बैठनेकी लितिका तत्वज्ञानमें निष्क्रियत्व या नैष्कर्म्य अवश्य आनन्द आर्य ऋषियोंको बहुत प्राचीन होना चाहिए: क्योंकि पुरुष और प्रकृतिका समयमें मालूम हुमा होगा। इस रीति- भेद जानने पर पुरुष निष्क्रिय ही होगा। से ऋषियोंने संसारसे तप्त हुए मनको परन्तु संन्यास-मार्गी लोग घेदान्ती रहते शान्त करनेका पता लगाते लगाते योग- थे। सुलभा और जनकके संवादसे यह की प्राणायामादि अनेक क्रियाएं हूँद कल्पना होती है कि धर्मशास्त्रके अनुसार निकाली और उनका अनुभव किया। संन्यास लेनेवाले सांख्यवादी नहीं थे। इनसे उन्हें मुख्यतः शान्ति, दीर्घायु और धर्मध्वज जनक पंचशिखका चेला था। आरोग्यका लाभ हुभा होगा। यह भी उसने संन्यास नहीं लिया था, वह राज्य उन्हें अनुभव हुआ कि योगसे ईश्वर करता था। उसने कहा है कि राज्य भजन अथवा चिन्तनमें भी लाभ होता करते समय भी मेरा नैष्कर्म्य कायम है। है । इससे तत्वज्ञानमें योगकी अलग उसके शब्द यह हैं:- गिनती होने लगी। योग प्रारम्भमें न तो __ त्रिदण्डादिषु यद्यास्ति मोक्षा ज्ञानेन सांख्योंके सदृश निरीश्वरवादी था, और कस्यचित् । छत्रादिषु कथं न स्यात्तल्य- न वेद-बाह्य था । अर्थात् प्राचीन कालले हेतौ परिग्रहे ॥ सांख्य और योगका मेल भी था और (शा० अ० ३२०-४२) : विरोध भी था । महाभारतमें कहा परन्तु इसका खण्डन करते हुए गया है कि योग शास्त्रका कर्ता हिरण्य- सुलभाने कहा है कि संसारका त्याग : गर्भ है । अर्थात् पहले किसी एक ही किये बिना मोक्ष नहीं मिल सकता और ऋषिने इस शास्त्रका प्रतिपादन नहीं संन्यास लिये विना मनकी व्यग्रताका किया है। लोगोंमें सांख्य और योग दोनों बन्द होना सम्भव नहीं। वह स्वयं यति- वेदविद्याके तुल्य ही माने जाते थे और धर्मसे चलती थी । इससे यदि यह मान भगवद्गीताके समयमें वे लोगोंमें प्रचलित लिया जाय कि भगवद्गीताके समय में भी थे और इसीसे वे भगवद्गीतामें समा. सांख्य वैदिकमार्गी संन्यासी थे, तो भी • कठोपनिषद में कहा गया है कि- महाभारत-कालमें सांग्ख्य मत संन्यास , नां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ । अथवा वेदान्तसे भिन्न ही था। तात्पर्य : अर्थात् मनकी और इन्द्रियोंकी धारणाका यह योग यह कि श्रागे चलकर धीरे धीरे उनमे उपनिषद के कालसे प्रसिद्ध है। कठके कुछ शब्दोंसे चाहे कोई यह समझ ले कि उपनिषदकालसे सांख्य शान भी वेदान्त सूत्रके समयमें वेदान्तियोंको होगा, परन्तु हम यह नहीं कह सकते। सांख्योका खण्डन करना ही पड़ा। इन्द्रियेभ्यः पर मनः मनसः सत्वमुत्तमम् । सत्यादधि महानात्मा महत्तोऽन्यक्तमुत्तमम् ॥ (२) योग। इसमे महान् और सत्व शब्द आये है, परन्तु यह अब हम योगका इतिहास दखेंगे। , स्पष्ट है कि वे सख्यि-मतके नहीं है । इसमें महान् मात्माके योग-तत्वज्ञान बहुत पुराना है । वह लिए दे और सांख्योंका महत् पुरुष अथवा भात्मासे सांख्योंसे भी प्राचीन होगा। निदान, मत्वा अकेला आया है. गुणके अर्थ में नहीं। सारशि, यह भिन्न है। इसी प्रकार यह स्मरण रखना चाहिए कि यहाँ चित्तवृत्ति-निरोधका योग उपनिषद्के सिद्धान्त स्थिर करना चाहिए कि दशोपनिष>में सांख्योंका समयस है। इन्द्रियोंको और मनको उल्लेख नही है।