पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५८१

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ॐ भिन्न मनोका इतिहास । ॐ ५५३ नीताके "देवद्विजगुरुप्राशपूजनं शौच. शंकरसे किया हुआ पाया जाता है। यह मार्जवम्" इत्यादि श्लोकोंमें तपकी जो पात "एकोहि रुद्रो न द्वितीयाय अति उदात्त कल्पना वर्णित है, उससे तस्थुः" "मायां तु प्रकृति विद्या. यह बिलकुल भिन्न है । नारायणका तप, उसके चार व्यूह अथवा मूर्ति, श्वेत न्मायिन तु महेश्वरम्" इन वचनोसे द्वीपके लोग और आत्माकी चार स्वरूपों- स्पष्ट है। भगवद्गीतामें भी "रुद्राणां में क्रममुक्ति आदि कल्पनाएँ पांचरात्रमें शंकरश्चास्मि' वचन है। अर्थात् यह भिन्न है। उसकी एकान्तिक वासुदेव-निर्विवाद है कि उपनिषत्कालके अनन्तर भक्ति भी भगवद्गीतामें वर्णित भक्तिसे भारती-कालमें शंकरकी परमेश्वरके विशेष है। यह (गीताका) सामान्य रूपसे उपासना शुरू हुई, और इस भक्ति मार्ग पांचरात्र मतसे भिन्न दिखाई स्वरूपकी एकता विशेषतः वैदिक देवता देता है। पांचरात्रकी गुह्य पूजाविधियों- रुद्र के साथ हो गई। यजुर्वेदमें रुद्रकी का वर्णन सौतिने नारायणीय पाख्यानमें विशेष स्तुति है। यजुर्वेद यज्ञ-सम्बन्धी नहीं किया है। इस मतको आगम भी वेद है और यह मान्य हुआ है कि वह कहा है। अर्थात आगमोक्त कुछ भिन्न क्षत्रियोंका विशेष वेद है। धनुर्वेद भी पूजा-प्रकार है जो सम्भवतः गुह्य होंगे। यजुर्वेदका उपांग है, और श्वेताश्वतर महाभारतके आधार पर पांचगन-मनका उपनिषद् कृष्ण यजुर्वेदका है । अर्थात् इससे अधिक वर्णन हम नहीं कर सकते। यह स्वाभाविक है कि क्षत्रियोंमें और मेगास्थिनीजके कथनसे भी यह बात यजुर्वेदमें शंकरकी विशेष उपासना शुरू दिखाई देती है कि महाभारत-कालमें हुई होगी। इसके सिवा यह बात भी श्रीकृष्णको भक्ति मुख्यतः सात्वत लोगोंमें ध्यान देने योग्य है कि क्षत्रिय युद्धादि प्रचलित थी। यहाँ पर यह कह देना कर कर्म किया करते थे जिससे सम्भव उचित होगा कि उसने लिख रखा है कि है कि उन्हें कर देवता ही अधिक प्रिय मथुरा में शौरसेनी लोग हरि या हिरो- हुए हों। कुछ आश्चर्य नहीं कि इसी कारण क्लीज (ग्रीकरूप) की भक्ति करते हैं। शंकरकी भक्ति रूढ़ हो गई और महा- भारत-कालमें तत्वज्ञान में भी पांचरात्रके (५) पाशुपत मत। समान पाशुपत-मत प्रचलित हो गया। अब हम पाँचवें तत्वज्ञानका कुछ अब हम महाभारतके आधार पर देखेंगे विचार करेंगे। सगुण ईश्वरकी कल्पना कि यह पाशुपत मत कैसा था। पहले श्रीकृष्ण-भक्तिसे निकली। परन्तु पाशुपत-तत्वज्ञान शान्तिपर्वके ३४४वें हम पहले कह चुके हैं कि साथ ही साथ अध्यायकी सूची में है और कहा है कि शंकरकी सगुण भक्ति भी मान्य हुई होगी। उसका उत्पन्नकर्ता शंकर अर्थात् उमा- शंकरकी भक्तिका उद्गम दशोपनिषदोसे पति श्रीकृष्ण ब्रह्मदेव-पुत्र ही है। हमने नहीं है, कदाचित् बादका है। वेद और पहले ही बतलाया है कि सौतिकी उपनिषदोंमें विष्णु और रुद्र दोनों देवता व्यवस्था यह है कि विष्णुकी स्तुतिके हैं । परन्तु उपनिषत्कालमें अर्थात् दशो- बाद शीघ्र ही बहुधा शंकरकी स्तुति पनिषत्कालमें परब्रह्मसे विष्णुका तादात्म्य उसने रखी है। इस नियमके अनुसार हुया था । श्वेताश्वतरमें यह तादात्म्य नारायणीय उपाख्यानके समान पाशुपत-