%3- 8 भिन्न मतोका इतिहास । ॐ ५५७ उपनिषदोंमें भी है कि बिना गुरुके तत्व- सेवा की। "एकशतं हि वर्षाणि झाम नहीं प्राप्त हो सकता । "तद्वि- मघवान् प्रजापती ब्रह्मचर्यमुवास" ज्ञानार्थ स गुरुमेवामिगच्छेत् समिः तब उसने अन्तिम उपदेश किया। प्रमो- त्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठं मुण्डक- पनिषद्में कहा है कि-"भूतएव तपसा का यह वाक्य प्रसिद्ध ही है । तथा श्रद्धया ब्रह्मचर्येण संवत्सरं छान्दोग्यमे कहा है-"श्राचायांद्रयव वत्स्यथ" यह स्पष्ट है कि बुद्धि शुद्ध विद्या विदिता साधिष्टं प्रापयति। और योग्य होनेके लिए ही ब्रह्मचर्यका उद्देश है। दूसरी बात, इसमें ब्रह्मचर्यके यही सिद्धान्त भगवद्गीतामें है। "तद्विद्धि सब नियम मानने पड़ते हैं। पहला नियम प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदे- यह है कि स्त्री-सङ्ग त्याग देना चाहिए । यंति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः" । इसका जो सामान्य अर्थ लिया गया है अर्थात् वेदान्तके मानके लिए गुरुकी । सो ठीक है। यह बात सब तत्वज्ञानों में आवश्यकता है। केवल भगवद्गीताका यह ": मान्य की हुई दिखाई देती है कि मोक्षके मत नहीं है कि यह ज्ञान स्वयंसिद्ध नहीं हो लिए ऐसे ब्रह्मचर्यकी श्रावश्यकता है। सकता। उसमें यह भी बतलाया है कि- स्पष्ट कहा है कि कमसेकम योगीके लिए - वह आवश्यक है। तीसरी बात, ब्रह्मचर्य- "तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेना.. के साथ अहिंसाका नियमसब तत्वज्ञानों- स्मनि विंदति । योगज्ञानके सम्बन्ध- को मान्य हुआ दिखाई देता है। यह में महाभारतमें "गुरूपदिष्ट मार्गसे ज्ञान निश्चित है कि मांसान्नके भक्षणसे योगी प्राप्त करके" ये वचन पाये जाते हैं। पांच- : या वेदान्तीका काम कभी न होगा । रात्रका भी यही स्पष्ट मत दिखाई देता ' यह पहले बतलाया गया है कि पांचरात्र है। सिर्फ सांख्य और पाशुपत मतोंमें यह मतमे और साधारणतः भागवत मतमें उल्लेख स्पष्ट रीतिसे आया हश्रा नहीं हिसा और मांसान्न वज्य है। और इसी मिलता। तथापि इसके सम्बन्धमें उनका लिए कहा है कि हिंसावय॑ यज्ञ ही वैष्णव भी यही मत होगा । उदाहरणार्थ २३६३ यज्ञ है । ( केवल पाशुपत मतमें यह नहीं अध्यायमें कहा है-“गुरुकी बताई हुई दिखाई देता।) युक्तिसे योगी जीवको स्थूल देहस मुक्त यह स्पष्ट है कि अावश्यकता केवल कर सकता है ।" अर्थात् इससे स्पष्ट है : ज्ञान या विशेष गुहा मार्ग बतला देमेके कि योगमार्गमें भी गुरुके उपदंशकी श्राव- लिए ही है । इसी लिए सनत्सुजातमें श्यकता है। तत्वज्ञानके गुरु उपनयनके कहा है कि विद्यामें गुरुका चौथा भाग गुरुप्रोसे भिन्न है। दिखाई देना है कि होता है । अर्थान् शेष तीन पाद शिष्यको इनके पास भी ब्रह्मचर्यका पालन करना स्वयं ही प्राप्त करने पड़ते हैं। उपनयन पड़ता है । ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्म-प्राप्तिके द्वारा वेदाध्ययन करनेके समय जो गुरु लिए गुरुकी सेवा-फिर वह एक दिनके होता है उसके अतिरिक्त और तत्वज्ञान लिए हो या कई वर्षों के लिए हो । बतानेवाले गुरुके अतिरिक्त किसी अन्य छान्दोग्योपनिषदें कहा है कि इन्द्रने धर्मगुरुका उल्लेख महाभारतमें नहीं है। प्रजापतिके पास १०१ वर्ष ब्रह्मचर्यको धर्मगुरुकी कल्पना तब निकली जब भिन्न
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