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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/५९४

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महाभारतमीमांसा

• महाभारतमीमांसा - - इसे भली भाँति समझ ले क्योंकि हम और उसका हेतु जो कर्मकत शरीर है, धर्मशील हैं। यह प्रश्न अकेले अर्जुनकर ही वह अनित्य तथा तुच्छ है। सारांश, मनुष्य- नहीं है। किन्तु समस्त भारती-युद्धकी ही को चाहिए कि वह संसारमें परमो धर्म धार्मिकताके सम्बन्धमें एक वादग्रस्त प्रश्न और नीतितत्वोंकी ओर ध्यान दे-उसका उपस्थित होजाता है। और, यह निर्विवाद | ध्यान मनुष्य-हानि या प्राणहानिकी भोर है कि, ऐसे ही अवसर पर तत्वज्ञान न रहे। सब कर्म परमेश्वरको अर्पण कर विषयकी चर्चाका महत्व भी है। इस बात- धर्मतत्वोंकी रक्षा करनी चाहिए। इससे को सभी स्वीकार करेंगे कि मनुष्यके "हत्वापिस इमान् लोकान् न हति जीवनकी इति-कर्तव्यताके गूढ़ सिद्धान्त- मन्यते' यह लाभ होगा कि मारना का विवेचन करने योग्य स्थान यही है। इसमें सन्देह नहीं कि कर्तव्य और अक- याम या मरना दोनों क्रियाएँ समान होगी। र्तव्य, नीतियुक्त और अनीतियुक्त श्राव- | उच्च धर्म-तत्वोंके सामने जीते या मरोंका रण, पाप और पुण्य इत्यादि विषयोंके शोक व्यर्थ है। ऐसे महातत्वज्ञानका सिद्धान्तोकाप्रतिपादन करने के लिए यही उपदेश करनेका प्रसङ्ग भारती युद्धारम्भ अवसर और यही स्थान उचित है। हम ही है। तब कौन कह सकेगा कि इस समझते हैं कि व्यासजीने जिस प्रसङ्गके । अलोकिक एवं अजरामर तत्वज्ञानोपदेशक | ग्रन्थको व्यासने अयोग्य स्थान दिया है। लिए भगवद्गीताका वर्मन किया है वह व्यासजीने भगवद्गीताख्यानको जो यही उस उदात्त ग्रन्थके तत्वज्ञानके अनुरूप स्थान दिया है, उससे महाकविकी योग्य उदात्त ही है। ___ सम्पूर्ण भारत ग्रन्थमें जो कुछ प्रति- उदात्त कलाका दिग्दर्शन होता है। इतना पादन किया गया है उसका समर्थन करने ही नहीं, किन्तु महाकविने इस पाख्यान- का मुख्य स्थान इस भयङ्कर यद्धका प्रारम्भ का अपने भारत ग्रन्थका सर्वस्व समझ- ही है, और यही सोचकर व्यासजीने ठीक कर इसमें तत्वज्ञानके सब विषय थोडेसे युद्धारम्भमें इस परमोच्च तत्वज्ञानको और गम्भीर शब्दोंमें एकत्र कर दिये स्थान दिया है । उच्च ध्येयके सामने मनुष्य- हैं। और, उसमें यह भी सुझा दिया है के शरीरका महत्व ही क्या है ? शरीरके कि यह ग्रन्थ अत्यन्त धार्मिक ग्रन्थों से नष्ट हो जाने पर वह फिर भी बारम्बार | अध्ययन करने योग्य एक भाग है। अन्त- में श्रीकृष्ण के ही मुखसे यह कहलाया मिलने वाला ही है। परन्तु आन्मा अमर गया है कि- है तथा धर्म नित्य है। जहाँ इस उच्च धर्म- अध्येष्यते च य इमं धम्यंसंवादमावयोः । तत्वका प्रश्न उपस्थित होता है, वहाँ प्राण- शान यझेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।। हानिका प्रश्न तुच्छ है। 'धर्मो नित्यः ____सारांश, इस सम्वादरूपी ग्रन्थका मखदाखे त्वनित्ये जीवो नित्यस्तस्य अध्ययन करना बहुत लाभदायक है। जिस हेतस्त्वनित्यः" इस वाक्यमे व्यासजी-प्रकार इसमें वर्णित विषय सांसारिक ने बतलाया है कि धर्मके तत्व स्थिर और बुद्धिके परे है, उसी प्रकार इसके पठनका नित्य हैं। इन धर्मतत्वोंके लिए सुख-दुःख- फल भी सांसारिक नहीं है, परन्तु कहना का विचार करना ही उचित नहीं क्योंकि चाहिए कि वह पारमार्थिक झाव-यसका जीव अथवा प्रात्मा नित्य तथा अमर है। फल है। इस मागको व्यास या पैशम्या-