पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  1. भगवहीता-विचार । *

पण्डितोंके लेखों में जिन्दा रहती हैं। परंतु और भी अनेक कारण हैं जिनका उल्लेख, यह सष्ट है कि ऐसे पण्डितोको लिखते विस्तार भयसे, यहाँ नहीं किया जा लिखते हजारों वर्ष बीत जायँ, तोभी लेख- ' सकता । इन्हीं सब बातोको दृष्टिसे संस्कृत प्रणालीमें कोई अन्तर नहीं होता । उदा- भाषाको देखना चाहिए । ऋग्वेद-कालकी हरणार्थ, लैटिन भाषामें ग्रन्थ-रचना न भाषा ब्राह्मण-कालकी भाषासे मित्र है और केवल मिल्टन और बेकनके ही समयतक तभी अधिकांशमें वह दुर्बोध हो गई थी। होती रही किन्तु अभीतक होती है । अर्थात् यहाँनक कि ब्राह्मणोंमें जगह जगह पर लैटिन भाषाके मर जाने पर भी १२००- ऋग्वेदकी ऋचाओंका अर्थ बतानेका प्रयत्न १६०० वर्षतक वह लिखी जा रही है। किया गया है। ब्राह्मणोंकी भाषामें और इतना ही नहीं, उसमें ग्रन्थ-रचनाके कारण दशोपनिषदोंकी भाषामें अन्तर देख पड़ता मिल्टनकी ऐसी तारीफ की जाती है कि है, परन्तु बहुत अधिक नहीं: क्योंकि वह लैटिन भाषाके प्रसिद्ध कवि वर्जिल- ब्राह्मणकालमें व्याकरण और कोशका के सटश भाषा लिखता था। यही हाल अभ्यास शुरू हो गया था। व्याकरणके संस्कृत भाषाका भी है। लोगोंकी बोल- बहुतेरे नियम हूँढ़े गये थे और तैयार भी चालसे संस्कृतका लोप हो जानेके बाद हो गये थे। उपनिषदोंकी और भगव- सौतिने महाभारत बनाया है, इसलिए गीताकी भाषामें जो थोड़ा अन्तर है उसकी भाषामें और भगवद्गीताकी भाषा- उसका कारण भी यही है, तथा भगव- में बहुत अन्तर नहीं हो सकता। इसमें गीता और पाणिनीय भाषामें भी थोड़ा सन्देह नहीं कि ग्रन्थकार जितना विद्वान् फरक है । इस बातका कोई इतिहास नहीं होगा, उसकी भाषा भी उतनी ही पूर्व- पाया जाता कि इस अवधिमें भरतखण्ड. कालीन प्रन्योंके सदृश होगी। इसलिए पर किसी विदेशीकी चढ़ाई हुई या किसी यह निर्विवाद सिद्ध है कि पाणिनिके । अन्य भाषाकी प्रभुता हुई । अर्थात् भाषा- व्याकरणके अनन्तर तथा बुद्धके अन- में प्रारम्भमें शीघ्रतासे बहुत अधिक फरक न्तर जितना संस्कृत-साहित्य बना है, नहीं हुश्रा । इस दृष्टिसे देखने पर मालूम और जो अच्छा होनेके कारण आजतक होता है कि पाश्चात्य भाषा-शास्त्रकार स्थित है, वह अधिकांशमें पाणिनिकी भाषामें फरक पड़ने की अवधि जो दो दो भाषाके अनुसार ही है। इसी कारण सौ वर्षकी बताते हैं वह कदापि ठीक संस्कृत साहित्यकी भाषामें विशेष भेद नहीं। यह काल और भी अधिक होना हमें नहीं दिखाई देता, और उसमें भाषा-चाहिए। वेदाङ्ग ज्योतिष और पाणि. की वृद्धिका सिद्धान्त अधिकांशमें प्रयुक्त नीय भाषामे यद्यपि बहुत अधिक फरक नहीं होता। नहीं है, तथापि यह निश्चयपूर्वक कहा जा दूसरी बात यह है कि जिस भाषाका सकता है कि इनमें छः सौ वर्षका अन्तर व्याकरण नहीं बना है, वह भाषा वहत है । इसी दृष्टिसे भगवद्गीताकी भाषामें शीघ्र बदलती है और जो भाषा प्रौढ़ हो और पाणिनीय भाषामें पाठ सौ वर्षका जाती है तथा जिसका व्याकरण बन जाता अन्तर मानना असम्भव नहीं। है, विशेषतः जिसका कोश भी बन जाता यथेह क्षुधिता बाला मातरं पर्युपासते। है, उसमें शनैः शनैः अन्तर होता है, एक- एवं सर्वाणि भूतान्यग्निहोत्रमुपासते ॥ दम नहीं । भाषाके बढ़ने और घटनेके छान्दोग्य उपनिषद्के इस श्लोकको