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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६१६

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महाभारतमीमांसा

® महाभारतमीमांसा. उन्हें यह देख पड़ा कि समस्त विश्व शान हो जायगा कि मनुष्य-समाज इसी नवर है। अधिक तो क्या, स्वर्ग भी नश्वर प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्तिके वीचमकोरे है। इससे उनका प्रेम तप और आरण्य- खाता हुआ चला आता है। घड़ीके लंगर वाससे जा लगा। यशका मार्ग उन्होंने कन (पैराडुलम) के समान वह एक बार स्यागा नहीं; पर यज्ञके साथ ही साथ प्रवृत्तिके परम शिखर पर पहुँच जाता है तपको भी उन्होंने महत्व दिया। वे स्वर्गकी और वहाँसे लौटकरमान्दोलित हो निवृत्ति अपेक्षा मोक्षको ही परम पुरुषार्थका स्थान की ओर झुकता है; तब निवृत्तिके पर- मानने लगे। पहले वे कहते थे कि सारी मोच बिन्दुको पहुँचकर वह फिर पान्दो- सृष्टि यज्ञ कर रही है तथा प्रजापति भी लित हो प्रवृत्तिकी ओर घूमता है । यज्ञ कर रहा है। अब उनकी भावना ऐसी आजतक यही अनुभव इतिहास में सब हुई कि सारी सृष्टि, प्रजापति तथा इन्द्र कहीं दिखाई देता है । ग्रीक लोगोंमें सभी तप करते हैं। उन्हें दिखाई देने लगा होमरके समय प्रवृत्तिकी पूर्ण प्रबलता कि समस्त उपभोग्य वस्तुओका त्याग और थी । वह धीरे धीरे घटती गई और सब कौंका संन्यास ही मोक्षका उपाय पायथागोरसके समयमें लोग निवृत्ति- है। वे कहने लगे कि किसी वस्तुकी इच्छा की ओर झुके । पायथागोरसके अनु- करना दरिद्रता स्वीकृत करना है तथा यायिोने मद्यमांस ही नहीं छोड़ा, बल्कि किसीकी इच्छा न करना ऐश्वर्यकी वे विवाह करना भी श्रेयस्कर नहीं परमावधि है । सारांश, वेदान्ती तत्ववेत्ता मानते थे। इस वृत्तिकी यहाँतक परमावधि मानने लगे कि संसारको छोड़ जंगलमें हुई कि डायोजेनिसने सर्वसंग-परित्याग जाकर शम-प्रधान बुद्धिसे अकाम-स्थितिमें कर जन्म भर एकान्तवास किया । एपि- रहना ही मनुष्यका परम कर्तव्य है। उनका क्यरसने मनुष्यको स्वभावोचित रीतिसे निश्चय हो गया कि पाशिष्ठ, द्रदिष्ठ तथा उसकी उलटी दिशामें जानेका प्रारंभ बलिष्ठ सार्वभौम राजाकोजोसुख मिलता किया । उसका मत था कि निसर्गसे प्राप्त है उससे हज़ार गुना अधिक मुख : होनेवाले सुखोंको सदाचरणके साथ भोग- अकामहत श्रोत्रियको मिलता है। यह कर मनुष्यको चाहिए कि वह प्रानन्दसे कल्पना वेदान्तियोंकी ही न थी, वरन् । अपने दिन व्यतीत करे। धीरे धीरे यह स्वतन्त्र रीतिसे जगत्की उत्पत्तिका मत भी इतना प्रबल हो गया कि लोग विचार करनेवाले कपिलादि द्वैतमत- प्रवृत्तिके दूसरे छोरको पहुँचे और सुखोप- वादियोंकी भी यही कल्पना थी। संक्षेपमें भोगको ही जीवनका इतिकर्तव्य मानने कहना होगा कि मन्त्र-काल में कर्म-वादियों- लगे। इस प्रकार ग्रीक लोग और उनके की प्रवृत्ति-परायणता परमावधिको पहुँच अनुगामी रोमन लोग ऐशो-आराममें चूर चुकी थी, तो उपनिषद-कालमें निवृत्ति- हो गये। उनकी विषयलोलुपताके कारण पादियोंको निवृत्ति-परायणताका शिखर हो ईसाके धर्मको फैलनेका मौका मिल ऊँचा होने लगा। गया। उस समय ईसाई-धर्ममें निवृत्तिका संसारमें प्रवति तथा प्राडंबर घुस पड़ा था। ईसाई लोग विवाह न करना प्रशंसनीय मानने लगे आन्दोलन । थे। उनका यह प्रबन्ध था कि निदान संसारके इतिहासकी ओर देखनेसे मनुष्य मृत्यु पर्यन्त एक ही स्त्री करे और