५६४ ॐ महाभारतमीमांसा. उसका उत्कर्ष 'यन्नत्वा न निवनंते केवल इतना ही है कि कभी धीरे तो रीतिसे हिन्दुस्थान भरमें हो गया है। इसी कभी जोरसे । मनुष्यका सांस किसी भक्ति-मार्गके कारण श्रीकृष्णके अवतारके | दशामें बन्द नहीं होता; मरने पर ही बन्द मुख्य धार्मिक कार्योकी छाप भारतभूमि होता है। गीली मिट्टी एक ही स्थितिमें के लोगोंके हृदयपटल पर सदाके लिए सदैव नहीं रहती । सारांश यह कि इस अंकित है। जगत्में क्रिया सतत जारी है और सदा | रहेगी । यह लोक कर्मसे बँधा है । नियत कर्मयोगका सिद्धान्त। या प्राप्त कर्म छोड़ देना सम्भव नहीं। श्रीकृष्णने इससे भी बढ़कर महत्वका । जो पागलपनसे उसको त्याग देते हैं वे एक काम तत्वज्ञानके सम्बन्धमें किया है। नामसी त्यागी हैं । ऐसा जान पड़ता है परन्तु उसकी छाप हिन्दुस्थानके हृदयपटल |कि ऐच्छिक कर्म करना या न करना पर सदाके लिए उठी हुई नहीं दिखाई अपने ही हाथमें है। परन्तु इसमें भी देती। इसका कारण हम पहले बता चुके स्वभावसे प्राप्त कर्म नहीं छूटता। यहाँ हैं । तत्ववेत्ताओंके सन्मुख यह अति सदोष सम्बन्धी विचार करना भी व्यर्थ विकट और महत्वका प्रश्न सदा उपस्थित है । जिस प्रकार अग्नि सदा धूमसे होता है कि इस जगत में मनष्यकी इति-व्याप्त रहती है. उसी प्रकार कर्मका प्रारंभ कर्तव्यता क्या है । जैसा कि शेक्सपीयरने दोषसे व्याप्त है । इसलिये यदि कर्म- कहा है-'To be or not to be, that | स्वभाव सिद्ध या सहज है, पर सदोष is the question.' इस जगत्में जिन्दा है, तो करना श्रेयस्कर ही है । तात्पर्य रहने में कोई सार्थकता है या मनुष्य- यह कि श्रीकृष्णका यह सिद्धान्त है कि का जीवन निरर्थक है। मनुष्य अपनी कर्मका छूटना या छोड़ना असम्भव है। परिस्थितिके अनुरूप कर्म करे या अकर्म यह सिद्धान्त पाश्चात्य तत्वज्ञानियोको स्वीकृत कर जीवनकी निरर्थकता व्यक्त भी मान्य होना चाहिए । उनका भी यही कर दिखावे ? कर्म और अकर्मके सम्ब- मत है कि कर्म करने में ही मनुष्यत्वका न्धका वाद अनादि है । यह विचारवानों गौरव है। परन्तु श्रीकृष्णके कर्मयोगमें के सामने सदासे उपस्थित है । श्रीकृष्ण- एक और विशेषता यह है जो कदाचित् ने गीताके समस्त विवेचनका उपसंहार पाश्चात्य पण्डितोकोमान्य न हो । मनुष्य- करते समय अठारहवें अध्यायमें अपनी को चाहिए कि वह कर्म करे। नियत या दिव्य और अमोघ वाणीसे इसी प्रश्नकी सहज कर्म तो टल ही नहीं सकता, और चर्चा की है और अपना सिद्धान्त अर्जुन- ऐच्छिक कर्म यदि कर्तव्य है तो करना ही को समझाया है। मनुष्य मोक्ष मार्गकी चाहिए । मनुष्यका जो कुछ कर्तव्य हो उसे प्राप्तिके लिए वेदका यज्ञ-याग, वेदान्तका शास्त्रके आधारसे निश्चित करना चाहिए संन्यास, अथवा सांख्य मार्गका शान, या अपनी सदसद्विवेक बुद्धिसे निश्चित रोगका चित्तवृति-निरोध, भक्ति-मार्गका करना चाहिए । मनष्यकी शुद्ध और भजन जो चाहे सो स्वीकार करे, परन्तु सात्विक बुद्धि उसे उसका कर्तव्य बताती उसे कर्म करना ही पड़ेगा। वह कभी है। "तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्य- टल नहीं सकता। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र सदा व्यवस्थिती" कहकर श्रीकृष्णने यह भी घूमते हैं; समुद्र सदा लहराता है। फर्क बताया है कि मनुष्यकी सात्विक बुद्धि
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