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पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६२४

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महाभारतमीमांसा

® महाभारतमीमांसा - लम्बित नहीं है पर अन्य बातों पर भी कर सकेगा। अपने कर्मयोगकी वही अवलम्बित है । इसलिए जो कर्म कर्तव्य तीसरी विशेषता श्रीकृष्णने बतलाई है। समझकर किया जाता है वही ठीक है। मनुष्यको चाहिए कि वह अपना कर्म उसका इच्छित फल हमेशा नहीं मिलता। परमेश्वरको अर्पण करते हुए करे। पर- मनुष्यको चाहिए कि वह कर्मापनका मेश्वरके आशानुसार जो अपना कर्तव्य महकार कभी न रखे, क्योंकि फलकी करेगा, वही फलेच्छा-रहित कर्त्तव्य कर सिद्धिके लिए पाँच बातोंकी आवश्यकता सकेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस है, जिनमेंसे कर्ता अकेला एक है ।सारांश उच्च भावनासे कर्म करनेवाला मनुष्य यह है कि युक्तिकी दृष्टिसे भी शास्त्रका उत्साह तथा प्रेम के साथ अपना कर्तव्य यही दृष्टान्त ठीक दिखाई देता है कि पूरा करेगा। यदि कर्ताके मनमें यह शङ्का मनुष्यको चाहिए कि वह कर्त्तव्यको हुई कि कर्त्तव्य सिद्ध होगा या नहीं, तो कर्तव्य समझकर ही करे, और उसके उसमें धैर्य तथा उत्साह रहना असम्भव फलकी ओर दृष्टि न रखे। है। यह आक्षेप हो सकता है कि यदि ईश्वराज्ञा तथा ईश्वरार्पण वुद्धि। कर्त्तव्यके फलकी ओर दृष्टि न रखी जाय, ' यहाँ पक और प्रश्न उपस्थित होता है तो मनुप्य निरुत्साही हो जायगा। पर कि यदि ऐसा निश्चय नहीं है कि कर्त्तव्यकी वही कर्त्तव्य जब मनुष्य इस भावनासे सिद्धि हमेशा होगी ही, तो फिर कर्त्तव्य- करेगा कि मैं ईश्वरकी प्राशासे करता है का गौरव ही क्या रहा ? ऐसी दशामें तो और उसीको अर्पण करता हूँ, तो उसका कर्तव्यका महत्व कुछ भी नहीं रहता। कर्त्त- उत्साह और धैर्य नहीं घटेगा। सारांश ध्यमें और कर्त्तव्यतामें कुछ भी फर्क न यह है कि, श्रीकृष्णके कर्म-योगको यह होगा। परन्तु थोड़ा विचार करनेसे इस तीसरी उच्चतम विशेषता है। उसका शङ्काका समाधान हो जायगा। शास्त्रका सिद्धान्त है कि 'चेतसा सर्वकर्माणि काम है कि वह कर्त्तव्यका निश्चय करे। मयि सन्यस्य मत्परः रीतिसे मनुष्य अपना शास्त्रसे यहाँ तात्पर्य है उन प्राचीन बुद्धि- कर्त्तव्य कर्म करे। मान लोगोंसे जिन्होंने अपने अनुभवसे मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसम- नियम बनाये हैं। अर्थात् कर्त्तव्यमें एक न्वितः । सिद्ध्यसिद्ध्योर्निविकारः कर्ता प्रकारका ज्ञानयुक्त हेतु है । शास्त्रकी सात्विक उच्चते ॥ सम्मतिके लिए भी यदि सात्विक बुद्धिसे इस छोटेसे लक्षणमे श्रीकृष्णके कर्तव्य- कर्तव्यका निश्चय किया जाय तो भी सिद्धान्तका उच्च रहस्य सम्पूर्णतया भरा उसमें एक प्रकारका महत्व और पवि-हा है। कदाचित कोई यह शक करेकि श्रता है। मनुप्यकी अकलुषित सात्विक क्या इस प्रकारका कर्ता कही प्रत्यक्ष बुद्धि जो कुछ उसे करनेको कहती है, वह होगा ? पर यह निर्विवाद है कि ऐसे युक्त और मान्य करने योग्य है। किन्तु महात्मा कर्ता संसारमें बराबर देखने में यह ईश्वरी प्रेरणा ही है। ऐसा समझने आते हैं। इसका एक छोटा सा उदाहरण में कोई हर्ज नहीं कि वह ईश्वरकी आज्ञा देखनेके लिए किसी शान्त और मामी ही है। सारांश यह है कि कर्तव्यको कर्त- स्त्रीको लीजिए जो अपने मरणासन्न पुत्र ध्यता इसीसे प्राप्त होती है। इसी राष्टिसे के मरने या स्वस्थ हो आनेका फल परमे. मनुष्य फलकी ओर ध्यानन देकर कर्तव्य 'श्वर पर छोड़कर धैर्य और उत्साह