पृष्ठ:महाभारत-मीमांसा.djvu/६३०

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महाभारतमीमांसा

. महाभारतमीमांसा # - प्रसङ्गमें ही श्रीकृष्णने कुट-युद्धका अवल- | संपत्ति है। और, देवी संपत्ति मोक्षकी म्बन करनेकी सलाह दी । ध्यानमें रखना ही प्राप्ति करा देनेवाली है। महाभारतमें चाहिए कि उन्होंने ऐसी सम्मति अन्यत्र व्यासने एक जगह कहा है कि-"इन्द्रियों- कहीं नहीं दी। को बिलकुल रोकना मृत्युसे भी अधिक श्रीकृष्णका दिव्य उपदेश। दुखदायी है; पर दूसरे पक्षमें इन्द्रियों- को स्वतंत्र छोड़ देनेसे देवताओंका भी सूक्ष्म विचारकी भट्ठीमें समझकी अधःपात हो जायगा।" संक्षेपमें, श्रीकृष्ण- भूलसे किये गये इन सब आक्षेपोंके भस्म ने उपदेश दिया है कि मनुष्यको चाहिए होने पर श्रीकृष्णका रम्य चरित्र तप्त कि वह नीतिशास्त्रके अनुसार युक्त सुवर्णके समान तेजस्वी और उज्वल आहार तथा विहारसे रहकर, उत्साह दिखाई पड़ता है, परन्तु अत्युक्ति या| और उत्थानका अवलम्बन कर, अपना भूलके कारण उनके चरित्रकी कुछ बातों- कर्तव्य कर्म करे 1 धर्मके सम्बन्धमें भी का कितना ही विपर्यास हो जाय, तथापि श्रीकृष्णने ऐसा उपदेश किया है कि उसके उदात्त विचारोंका निधान दिव्य मनुष्य अतिरेकको छोड़ न्याय और भगवदगीता जबतक संसारमें है तबतक उचित मध्य विन्दुमें रहे । संसारको श्रीकृष्णका चरित्र चमके बिना कभी न छोड़कर जंगलमें जा रहना संन्यास रहेगा। इस परम तत्वज्ञानके ग्रन्थमेश्रीकृष्ण- नहीं हैं; परन्तु काम्य कौंका न्यास ही ने जिस कर्मयोगका उपदेश दिया है, वह सच्चा संन्यास है। कर्मको बिलकुल छोड़ सर्व काल में तथा सब देशों में सब लोगों- देना त्याग नहीं कहलाता, परन्तु कर्मके के आदरकी वस्तु रहेगा। कर्मको सिद्धि फलको आसक्तिको त्यागना हो सचा हो या न हो, इस विचारसे मनको चंचल त्याग है । शरीरके भूतग्रामोंका हठसे न होने देकर अपना कर्तव्य कर्म इस कर्षण कर आत्माको सब प्रकारसे कष्ट भावनासे करना चाहिए कि मैं परमेश्वर देना ही तप नहीं होताः परन्तु उन्होंने पर भरोसा रख कर परमेश्वरकी इच्छासे यह प्रतिपादन किया है कि योग्य नियमों- उसे करता हूँ और उसे परमेश्वरको । से युक्त गुरु-शुश्रूषादि शारीरिक, सत्य ही अर्पण करता हूँ। यह सिद्धान्त भाषणादि वाचिक तथा प्रसाद, शान्ति अत्यन्त उदान है और इतना उदात्त आदि मानसिक तप ही तप है । ईश्वर- कर्तव्य-सिद्धान्त आजतक किसी तत्व- सिद्धान्तके यानी ब्रह्मज्ञानके सम्बन्धमें वेत्ताने नहीं सिखाया । यह सिद्धान्त | उन्होंने सनातन तथा अव्यक्त ब्रह्मके जिसके चित्तमें पक्का उन गया वह निःसं- विरोधमें, सुष्टोंके दुःखहर्ता और दुष्टोंके शय दुःख सागरसे पार हुए विना न दण्ड-दाता ईश्वरी अवतार अथवा रहेगा। श्रीकृष्णने यह बात दुनियाकी सगुण ब्रह्मका प्रतिपादन किया है। दृष्टि में अच्छी तरह ला दी कि कर्मको त्याग परमेश्वर केवल भक्तिसे ही साध्य है। देना अशक्य है, उन्होंने अपना स्पष्ट मत भक्ति-मार्गका द्वार सबके लिए खुला दे दिया है कि धर्म और नीतिके अनुसार हुआ है और वह सुलभ है; यहाँतक कि जगतके भौतिक सुखोंका नियम-युक्त चांडाल और ब्राह्मण, स्त्री और पुरुष उपयोग अर्थात् सदाचरण-युक्त गार्हस्थ्य ईश भक्तिसे समान मोक्षको प्राप्त कर संन्यासके समान ही पुण्यप्रद है। यही दैवी सकेंगे । श्रीकृष्णने ऐसा उदार और