तथा शब्द-रचनात्रोंकी भी भरमार है। सुवर्णके समान ही छोटे, वजनदार और
सारांश, भाषाकी दृष्टिसे भी महाभारत- तेजस्वी हैं।
का दर्जा मिल्टनके काव्यसे ऊँचा है। ऊपर बतलाये हुए गुणों के अतिरिक्त
महाभारतके कुछ प्रधान भागोंमें जिस | एक और गुणके कारण भी, संसारके सब
भाषाका उपयोग किया गया है उससे प्रकट आर्ष महाकाव्योंमें, महाभारतको श्रेष्ठता
होता है कि जब संस्कृत भाषा हजारों प्रस्थापित होती है। यह नहीं बतलाया
लोगोंकी बोलचालकी भाषाथी, उस समय | जा सकता कि किसी महाकाव्यका प्राण
की शुद्ध और सरल संस्कृत भाषामें या जीवात्मा अमुक ही है । कवि विविध
प्रौढ़ शब्द-रचनाका होना कहाँतक भाँतिसे अपने पाठकोंका मनोरंजन करता
सम्भव है।
है और भिन्न भिन्न प्रसङ्गो तथा दृश्योंका
. महाभारतमें ध्यासकृत जो मूल भाग वर्णन करता है; परन्तु मनोरंजनके सिवा
है उसकी भाषा अन्य भागोंकी भाषासे उसका और कुछ हेतु देख नहीं पड़ता।
विशेष सरस, सरल और गम्भीर देख महाभारतका हाल ऐसा नहीं है । उसमें
पड़ती है। सौति भी कुछ कम प्रतिभावान एक प्रधान हेतु है जो समस्त ग्रन्थमें एक
कवि न था। परन्तु उसके समयमें साधा- सामान्य सूत्रके समान अथित है और
रण जनताकी बोलचालमें संस्कृत भाषा जिसके कारण इस काव्यके प्राण या
प्रचलित न थी, इसलिये उसके द्वारा रचे जीवात्माका परिचय स्पष्ट रीतिसे हो
हुए भागको भाषामें कुछ थोड़ा सा अन्तर सकता है। किसी प्रसङ्गका वर्णन
हो जाना खाभाविक है। जो यह जानना करते समय व्यासजीके नेत्रोंके सामने
चाहते हैं कि व्यासकृत मूल भारतकी भाषा सदैव धर्म हो एक व्यापक हेतु उपस्थित
कितनी प्रौढ़, शुद्ध, सरस और सरल है. रहा करता था । उनका उपदेश है कि
के भगवद्गीताकी भाषाको एक बार अवश्य "मनुष्यको धर्मका आचरण करना
देखे । जिस प्रकार यह ग्रन्थ-भाग समस्त चाहिये। ईश्वर-सम्बन्धी तथा मनुष्य-
भारतसे मन्थन करके निकाला हा सम्बन्धी अपने कर्तव्योंका पालन करना
अमृत है, उसी प्रकार उसकी भाषा भी चाहिये लथा धर्माचरणसे ही उसके सब
अमृत-तुल्य है। जिस प्रकार उसमें महा- उद्दिष्ट हेतु सिंद्ध होते है। उस धर्माचरण-
भारतका सबसे श्रेष्ठ तत्त्वज्ञान भरा हुआ से पराङ्मुख होनेके कारण ही उसके
है, उसी प्रकार संस्कृत भाषा पर व्यास सब उद्दिष्ट हेतु नष्ट हो जाते हैं। चाहे
जीकी प्रभुता भी शिखरतक पहुँची हुई कितना बड़ा सङ्कट क्यों न आ जाय, दशा
उसी प्रन्थमें देख पड़ती है। संस्कृत कितनी ही बुरी क्यों न हो जाय, पर मनु-
भाषाके सम्पूर्ण साहित्यमें भाषाकी दृष्टि व्यको धर्मका त्याग कभी नहीं करना
से भी भगवद्गीताकी समानता करनेवाला चाहिये ।" इसी उपदेशके अनुसार सौतिने
कोई दूसरा प्रन्थ नहीं है। सरलता, शब्द- भी स्थान स्थान पर उपदेश किया है।
रचनाकी शुद्धता, वाक्योंकी श्रतिमनोहर समस्त महाभारत-प्रन्थमे धर्मकी महिमा
और गम्भीर ध्वनि आदि भगवद्वीताकी कूट कूटकर भरी गई है । किसी पाख्यान
भाषाके अद्वितीय गुल हैं । इस सर्वोत्तम अथवा पर्वको लीजिये, उसका तात्पर्य
गीता-प्रन्थका प्रत्येक शन और प्रत्येक .यही देख पड़ेमा, इसी तत्वकी जयध्वनि
वाक्य सुवर्णमय है। क्योंकि वे सचमुच पुन पड़ेगी कि"यतोधर्मस्ततो जया,
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महाभारतमीमांसा