यूरोप के इतिहास से सीखने योग्य बातें | 479 की स्वाधीनता का उपभोग करने लगे। ज्यों ही लोगों की विचारशक्ति पोप के प्रज्वलित मिथ्या धर्म के बन्धनों से स्वतन्त्र हो गई त्यों ही नूतन तत्त्वविचार, नये नये वैज्ञानिक आविष्कार, नये नये व्यापार और व्यवमाय, कलाकुशलता-सम्बन्धी नया नया उद्योग, सामाजिक सुधार और विद्या का प्रचार आदि अनेक लोकोपयोगी कार्यों के लिए शीघ्रता तथा सफलता से यत्न किये जाने लगे। इसका सुफल, वर्तमान समय में, हम सब लोग देख ही रहे हैं-यूरोप के प्रायः सभी देश उन्नति के मार्ग में बहुत आगे बढे हुए है। अब देखना चाहिए कि इस धर्म-परिवर्तन के कार्य में लोगो को कितना और कैमा कष्ट सहना पड़ा-उन्हें किन किन कठिनाइयो का सामना करना पड़ा । सुधार और उन्नति, परिवर्तन और क्रान्ति, चाहे किमी व्यक्ति की हो, चाहे किमी समाज या देश की हो, कोई सहज काम नही है । सुनने और पढ़ने के समय ये सब शब्द बडे ही मधुर और मोहक मालूम होते है; परन्तु जो लोग अपनी या अपने समाज और देश की उन्नति का यत्न करते हैं उन्हें कण्टकमय मार्ग मे चलना ही पड़ता है। उनके मार्ग में फूलो की मेज नहीं बिछी रहती, किन्तु उन्हे मदा नलवार की तेज धार पर नाचन के समान कठिन काम करना पड़ता है। परोप के अन्य देशो की बातें जाने दीजिए । जिम इंगलैंड देश के साथ हमारा इतना गहरा सम्बन्ध है उसी के इतिहाम की ओर देखिए और इस बात का विचार कीजिए कि वहाँ इन धाम्मिक क्रान्तिकारियों की-नूतन मन के अनुयायियो (प्रोटेस्टेन्टों) की--कमी दुर्दशा हुई। सबसे पहले, बाइबल के अनुवादक, मिस्टर विलियम टिडेल का कुछ हाल सुनिए। जिस समय लूथर ने जर्मनी में धाम्मिक सुधार का कार्य आरम्भ किया उसके पहले ही इंगलैंड में जान विकलिफ और उसके अनुयायियों के यत्न से धाम्मिक जागति हो गई थी। इसलिए लूथर के प्रोटेस्टेन्ट मतों का स्वीकार और प्रचार इंगलैंड में सहज और बहुत शीघ्र हो गया। परन्तु इंगलैंड के राजा आठवें हेनरी ने (यद्यपि वह अपने स्वार्थ और अपनी निजी स्वाधीनता के लिए पोप की सत्ता का विरोधी था) और उसके बड़े बड़े अधिकारियों तथा मरदारों ने भी नूतन मतों का स्वीकार न किया था । अतएव वे लोग अपने देश के प्रोटेस्टेन्टों के माथ, महानुभूति के बदले, सदा विरोध किया करते थे। विलियम टिंडेल नाम के एक विद्वान् आदमी ने, नूतन मतों के अनुसार, अंगरेज़ी भाषा में बाइबल का अनुवाद किया था। उसका विश्वास था कि जब तक धर्मग्रन्थों की शिक्षा मातृभाषा के द्वारा न दी जायगी तब तक धाम्मिक जागृति में सफलता न होगी। परन्तु उम समय इंगलैंड में प्रोटेस्टेन्ट मत के लोग इतने सताये जा रहे थे कि टिडेड को वहाँ रहना तक कठिन हो गया। प्रायः एक वर्ष तक वह लन्दन के किसी पादरी के घर में छिपा रहा। जब वहाँ भी उसे कुछ भय मालूम हुआ और इंगलैंड में अपने ग्रन्थ के प्रकाशित होने की कोई आशा न देख पड़ी तब वह इधर उधर भागता भागता विटम्बर्ग में जा 1. C.-I understood at the last not only that there was no room in my Lord of London's palace to translate the New Testament, but also that there was no place to do it in all England."'--'Readings from English History'
पृष्ठ:महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड 4.djvu/४८३
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