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पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/१३

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प्रजातंत्र के प्रत्येक अंग में व्याप्त है। कहानी का यह कार्य-व्यापार पाठकों को निरन्तर सजग बनाये रखता है। नायक झबेला को यद्यपि युद्धबन्दी बना लिया जाता है, पर उसका आन्तरिक उद्वेग गरजता सुनाई देता रहता है। मुक्त होकर संघर्ष करने की उसकी इच्छा उसके अपने पुत्र-स्नेह से टकराती है और उसका अन्तःकरण द्वन्द्व की रस्साकशी का मैदान बन जाता है। नायक झबेला अपने पुत्र फोटू को जामिन रख बलिवेदी पर चढ़ा देता है। कथानक का सहज रूप सरकता और विस्तार पाता जाता है और संघर्ष का केन्द्र फोटू पर सरक जाता है। फोटू का यह उत्तर कि 'शेर का बच्चा शेर ही होगा', उसे किसी अज्ञात टापू पर बन्दी बना देता है। सन्धि के बहाने बुलाया गया २४ सुलियटों का प्रतिनिधि दल संघर्ष का अब तीसरा केन्द्रबिन्दु बन जाता है। स्वातंत्र्यप्रिय यह प्रतिनिधि दल आक्रान्ता की आवाज को कुचल देता है। बादशाह अलीपाशा की नीति में परिवर्तन होता है और वह राजनीति की दूसरी नीति 'दामनीति' की शरण जाता है। पाठकों का ध्यान अब सुलियटों के उस धनिक मुखिया पर केन्द्रित हो जाता है जिसे दस लाख अशर्फियों का तथा और बहुत कुछ इनाम देने का लोभ दिया जाता है। कहानी के कथातत्त्व का यही चरमोत्कर्ष है। प्रजातन्त्र राज्य का धनिक यहाँ धनलोभी नहीं होता। वह कहता है––"अपने द्रव्य की थैलियाँ मेरे पास न भेजें, क्योंकि मैं यह नहीं जानता कि इस प्रकार के द्रव्य को कैसे गिनते हैं? सुलियट लोगों का सम्मान शस्त्रास्त्र में है, द्रव्य में नहीं। क्षणभंगुर द्रव्य की आशा न करके शस्त्रों के बल पर अपना नाम अजर-अमर करना और अपने स्वतन्त्रता की रक्षा करना––यही हमारा काम है, यही हमारा धर्म है।"

हम कहते हैं कि यही सम्मान है।

उक्त संवाद-खंड चाहे अभिनयात्मक हो गया हो, चाहे वह अपने प्रश्न का समाधान कर लेता हो, पर कहानी का यह अन्त नहीं हो सकता। ऐसा लगता है कि इस कथा का शेषांश कम्पोजीटरों के हाथों