सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

(४०)

अन्तःकरण का संस्कार इतना प्रबल हो गया कि उसे परमात्मा के सर्वसाक्षित्व की याद आई और तुरन्त ही उसने उस बच्चे को कैद से मुक्त कर दिया। उसी दम वह अपनी माँ की ओर दौड़ा। दोनों मिलकर जंगल की ओर मुड़े। परन्तु जाते-जाते मानो अपनी कृतज्ञता दिखलाने ही के लिए उस हरिणी ने अपने प्रसन्न मुख और आनंदपूर्ण नेत्रों से पथिक की ओर एक बार लौट कर देखा और फिर झाड़ी में अपने छोटे बच्चे को लेकर घुस गई।

सज्जन मनुष्यों का चित्त ऐसे सत्कर्मों से अवश्य ही प्रफुल्लित हो जाता है। जीव ऐसी अमूल्य वस्तु दूसरी कोई भी नहीं है। क्या पशुओं को और क्या मनुष्यों को, जीव सभी को प्यारा है। परन्तु यह जानबूझ कर भी, कई लोग बेचारे गूँगे जानवरों का केवल कौतुकार्थ वध करते हैं; उन्हें कुछ दुःख होगा या नहीं––इसबात का बिलकुल सोच-विचार नहीं करते। ऐसे नरपशुओं से क्या कहें?

हिरण के बच्चे को जीवदान देने के कारण उस पथिक को बहुत ही हर्ष और समाधान हुआ। उसने अपने झोले से थोड़ा-सा बासी भात निकाला और ब्यारी करके उसी जगह रात भर रहने का निश्चय किया। इधर-उधर से पत्ते बटोर कर अपने बिछौने के नीचे बिछाए। जीवदान के समान सत्कर्म करने से वह स्थान उसको अतिप्रिय मालूम होता था। चारों तरफ चन्द्रमा का शुभ स्फटिकवत् शीतल प्रकाश और निर्जन बन की अनुपम शांति उसके मन का आह्‌लाद और भी बढ़ा रही थी। बीच-बीच में श्वापदों की भयंकर गर्जना और उनके चलने की आहट सुन पड़ती थी। बटोही दिनभर का थका हुआ था। बिछौने पर लेटते ही नींद आने लगी। दोपहर की दुर्घटना का स्मरण होते ही उसको अपने घोड़े की याद आई। फिर वह बहुत ही व्याकुल हो गया। परन्तु संध्या समय हिरण के बच्चे को बंधन मुक्त करने के कारण जो समाधान हुआ था, वह अभी