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पृष्ठ:माधवराव सप्रे की कहानियाँ.djvu/४८

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थोड़े ही दिनों में तरक्की देते-देते उसको समीरुल-उमरा बना दिया। उसने भी कभी ऐसा खराब काम नहीं किया कि जिससे उसके नाम और ओहदे पर बट्टा लगता। अब तो अलप्तगीन ने अपनी सब फौज ही उसे सौंप दी और कहा कि राज्य की कुल व्यवस्था तुम ही देखा करो। यह अधिकार मिलते ही उसने फौज को एक शिस्त से कवायद सिखलाना शुरू किया और लड़ाई की ऐसी अच्छी व्यवस्था रखी कि थोड़े ही दिनों में कई दुश्मनों के दाँत खट्टे हो गए। कई तो आप ही आप डर कर सीधे हो गए। जिधर-उधर शांति होकर बादशाह का अमल पूरा-पूरा स्थापित हो गया। इससे अमीर की बड़ी प्रशंसा होने लगी और फौज का हर एक सिपाही उसको अपनी जान से भी ज्यादा चाहने लगा। अब उसके मन में अपने स्वप्न की कुछ-कुछ सत्यता मालूम होने लगी। अपने पुत्र को इस प्रकार के वैभव में देखने का सुख उसके बाप के नसीब में न था। पर उसकी माँ अभी तक जीवित थी। उसको उसने अपने पास बुलवा लिया। लड़के की यह बड़ाई देख उसे भी बड़ा आनन्द हुआ।

देखो तो सही! इस मनुष्य की स्थिति अल्पकाल ही में कैसी बदल गई!! यही पथिक जो कुछ दिन पूर्व गुलामी करता था और सबके सामने घुटना टेक कर माथा नवाया करता था, वह अब खुरासान के सब अमीरों का उमराव हो गया है और उसको सब छोटे-बड़े लोग झुक कर सलाम करते हैं!!! कितना बड़ा अंतर है। यह सच है, पुरुष का भाग्य कब खुलेगा, कोई नहीं जानता। बादशाह अपने अमीर से बहुत ही खुश रहने लगा। राजदरबार में उसकी सलाह लिए बिना कुछ भी काम नहीं चलता था। क्या दरबार में और क्या रणभूमि में उसी की आज्ञा सबको मान्य होती थी। वह अपने दुश्मन को प्रत्यक्ष काल के समान, राजा को जीव और प्राण के तुल्य, प्रजा को एकमात्र आधार और सेना को सदा विजयी सच्चा नायक मालूम होता था।