पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१६२

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अंत में मैंने हृदय को बहुत दबाया और बनावटी क्रोध का भाव धारण किया। ठान लिया कि चलते ही चलते एकदम से बरस पडूंगा। ऐसा न हो कि विलंबरूपी वायु इस क्रोधधारी मेघ को उड़ा ले जाए, परंतु ज्यों ही घर पहुँचा, अंबा ने दौड़कर मुन्नू को गोदी में ले लिया और प्यार से सने हुए कोमल स्वर से बोली - आज इतनी देर तक कहाँ घूमते रहे? चलो, देखो, मैंने तुम्हारे लिए कैसी अच्छी-अच्छी फुलौड़ियाँ बनाई है। मेरा कृमित्र क्रोध एक क्षण में उड़ गया। मैंने विचार किया, इस देवी पर क्रोध करना भारी अत्याचार है। मुन्न अबोध बालक है। संभव है कि वह अपनी माँ का स्मरण कर रो पड़ा हो। अंबा इसके लिए दोषी नहीं ठहराई जा सकती। हमारे मनोभाव पूर्ण विचारों के अधीन नहीं होते, हम उनको प्रकट करने के निमित्त कैसे-कैसे शब्द गढ़ते है, परंतु समय पर शब्द हमें धोखा दे जाते है और वे ही भावनाएँ स्वाभाविक रूप से प्रकट होती हैं। मैंने अंबा को न तो कोई व्यंग्यपूर्ण बातें ही कहीं और न क्रोधित मुख ढाँककर सोया ही, बल्कि अत्यंत कोमल स्वर में बोला - मुन्नू ने आज मुझे अत्यंत लज्जित किया। खचानजी साहब ने पूछा तुम्हारी नई अम्माँ तुम्हें प्यार करती हैं या नहीं, तो ये रोने लगा। मैं लज्जा से गढ़ गया। मुझे तो स्वप्न में भी यह विचार नहीं हो सकता कि तुमने इसे कुछ कहा होगा। परंतु अनाथ बच्चों का हृदय उस चित्र की भाँति होता है जिस पर एक बहुत ही साधारण परदा पड़ा हुआ हो। पवन का साधारण झोंका भी उसे हटा देता है। ये बातें कितनी कोमल थीं, तिस पर भी अंबा का विकसित मुखमंडल कुछ मुरझा गया। वह सजल नेत्र होकर बोली - इस बात का विचार तो मैंने यथासाध्य पहले ही दिन से रखा है। परंतु यह असंभव है कि मैं मुन्नू के हृदय से माँ का शोक मिटा दूँ। मैं चाहे अपना सर्वस्व अर्पण कर दूँ, परंतु मेरे नाम पर जो सौतेनेपन की कालिमा लगी हुई है, वह मिट नहीं सकती।