पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१६३

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मुझे भय था कि इस वार्तालाप का परिणाम कहीं विपरित न हो, परंतु दूसरे ही दिन मुझे अंबा के व्यवहार में बहुत अंतर दिखाई देने लगा। मैं उसे प्रातःसायंकाल पर्यंत मुन्नू की ही सेवा में लगी हुई देखता, यहाँ तक कि उस धुन में उसे मेरी भी चिंता न रहती थी। परंतु मैं ऐसा त्यागी न था कि अपने आराम को मुन्नू पर अर्पण कर देता। कभी-कभी मुझे अंबा की यह अश्रद्धा न भाती, परंतु मैं कभी भूल कर भी इसकी चर्चा न करता। एक दिन मैं अनियमित रूप से दफ्तर से कुछ पहले ही आ गया। क्या देखता हूँ कि मुन्नू द्वार पर भीतर की ओर मुख किए खड़ा है। मुझे इस समय आँख-मिचौली खेलने की सूझी। मैंने दबे पाँव पीछे से जाकर उसके नेत्र मूंद लिये। पर शोक! उसके दोनों गाल अश्रुपूरित थे। मैंने तुरंत दोनो हाथ हटा लिये। ऐसा प्रतीत हुआ मानो सर्प ने इस लिया हो। हृदय पर एक चोट लगी। मुन्नू को गोद में लेकर बोला - मुन्नू क्यों रोते हो? यह कहते-कहते मेरे नेत्र भी सजल हो आए। मुन्नू आँसू पीकर बोला - जी नहीं, रोता नहीं हूँ। मैंने उसे हृदय से लगा लिया और कहा - अम्माँ ने कुछ कहा तो नहीं? मुन्जू ने सिसकते हुए कहा - जी नहीं, मुझे वह बहुत प्यार करती है। मुझे विश्वास न हुआ, पूछा - वह प्यार करती है तो तुम रोते क्यों? उस दिन खचानजी के घर भी तुम रोये थे। तुम मुझसे छिपाते हो। कदाचित तुम्हारी अम्माँ अवश्य तुमसे कुछ क्रुद्ध हुई है। मुन्नू ने मेरी ओर कातर दृष्टि से देखकर कहा - जी नहीं, वह मुझे प्यार करता है, इसी कारण मुझे बारम्बार रोना आता है। मेरी अम्माँ मुझे अत्यंत प्यार करती थी। वह मुझे छोड़कर चली गई। नई अम्माँ उससे भी अधिक प्यार करती है। इसीलिए मुझे भय लगता है कि उनकी तरह यह भी मुझे छोड़कर न चली जाए।