पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१६४

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यह कहकर मुन्नू पुनः फूट-फूटकर रोने लगा। मैं भी रो पड़ा। अंबा के इस स्नेहमय व्यवहार ने मुन्नू के कोमल हृदय पर कैसा आघात किया था। थोड़ी देर तक मैं स्तंभित रह गया। किसी कवि की यह वाणी स्मरण आ गई कि पवित्र आत्माएँ इस संसार में चिरकाल तक नहीं ठहरती। कहीं भावी ही इस बालक की जिह्वा से तो यह शब्द नहीं कहला रही है। ईश्वर न करे कि वह अशुभ दिन देखना पड़े। परंतु मैंने तर्क द्वारा इस शंका को दिल से निकाल दिया। समझा कि माता की मृत्यु ने प्रेम और वियोग में एक मानसिक संबंध उत्पन्न कर दिया है और कोई बात नहीं। मन्नू को गोद में लिये हुए अंबा के पास गया और मुस्कराकर बोला - इनसे पूछो क्यों रो रहे है? अंबा चौंक पड़ी। उसके मुख की कांति मलिन हो गई। बोली - तुम्हीं पूछो। मैंने कहा - यह इसलिए रोते है कि तुम इन्हें अत्यंत प्यार करती हो और इनको भय है कि तुम भी इनकी माता की भाँति इन्हें छोड़कर न चली जाओ। जिस प्रकार गर्द साफ हो जाने से दर्पण चमक उठता है, उसी भाँति अंबा का मुख मंडल प्रकाशित हो गया। उसने मुन्नू को मेरी गोद से छीन लिया और कदाचित यह प्रथम अवसर था कि उसने ममतापूर्ण स्नेह से मुन्नू के पाँव का चुंबन किया। शोक! महाशोक!! मैं क्या जानता था कि मुन्जू की अशुभ कल्पना इतनी शीघ्र पूर्ण हो जाएगी। कदाचित उसकी बाल-दृष्टि ने होनहार को देख लिया था, कदाचित उसके बाल श्रवण मृत्यु दूतों के विकराल शब्दों से परिचित थे। छह मास भी व्यतीत न होने पाए थे कि अंबा बीमार पड़ी और एंफ्लुएंजा ने देखते-देखते उसे हमारे हाथों से छीन लिया। पुनः वह उपवन मरुतुल्य हो गया, पुनः वह बसा हुआ घर उजड़ गया। अंबा ने अपने को मुन्नू पर अर्पण कर दिया था - हाँ, उसने पुत्र-स्नेह का आदर्श रूप दिखा दिया। शीतकाल था और वह घड़ी रात्रि शेष रहते ही मुन्नू के लिए प्रातःकाल का भोजन बनाने उठती थी। उसके इस स्नेह-बाहुल्य ने मुन्नू पर स्वाभाविक प्रभाव डाल दिया था। वह हठीला और