पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१६८

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में व्यस्त थी। भट्ठियाँ पर कड़ाह चढ़ रहे थे। एक में पूड़ियाँ-कचौड़ियाँ निकल रही थी, दूसरे में अन्य पकवान बनते थे। एक बड़े हंडे में मसालेदार तरकारी पर रही थी। घी और मसाले की क्षुधावर्धक सुगंधि चारों ओर फैली हुई थी। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं। यह स्वाद मिश्रित सुंगधि उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन ही मन विचार कर रही थीं, संभवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेगी। इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिए कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया; परंतु अशकुन के भय से वह रो न सकी। 'आहा! कैसी सुगंधि है? अब मुझे कौन पूछता है? जब रोटियों ही के लाले पड़े है तब ऐसे भाग्य कहाँ कि भरपूर पूड़ियाँ मिलें?' यह विचार कर उन्हें रोना आया, कलेजे में हूक-सी उठने लगी। परंतु रूपा के भय से उन्होंने फिर मौन धारण कर लिया। बूढ़ी काकी देर तक इन्हीं दुःखदायक विचारों में डूबी रहीं! घी और मसालों की सुगंधि रह-रह कर मन को आपे से बाहर किए देती थी। मुँह में पानी भर-भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। किसे पुकारूँ, आज लाडली बेटी भी नहीं आई। दोनों छोकड़े सदा दिक किया करते हैं। आज उनका भी कहीं पता नहीं। कुछ मालूम तो होता कि क्या बन रहा है। बूढ़ी काकी की कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल-लाल, फूलीफूली, नरम-नरम होंगी। रूपा ने भली-भाँति भोजन किया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलायची की महक जा रही होगी। एक पूड़ी मिलती तो जरा हाथ में ले कर देखती। क्यों न चलकर कड़ाह के सामने ही बैलूं। पूड़ियाँ छन-छनकर तैयार होंगी। कड़ाह से गरम-गरम निकालकर थाल में रखी जाती होंगी। फूल हम घर में भी सूंघ सकते है; परंतु वाटिका में कुछ और बात होती है। इस प्रकार निर्णय करके बूढ़ी काकी उकडूं बैठकर हाथों के बल सरकती हुई बड़ी कठिनाई से चौखट से उतरी और धीरे-धीरे रेंगती हुई कड़ाह के पास आ बैठी। यहाँ आने पर