पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१६९

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उन्हें उतना धैर्य हुआ जितना भूखे कुत्ते को खानेवाले के सम्मुख बैठने में होता रूपा उस समय कार्य-भार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास आती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा - महाराज ठंडाई माँग रहे है। ठंडाई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा - भाट आया है, उसे कुछ दे दो। भाट के लिए सीधा निकाल रही थी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा - अभी भोजन तैयार होने में कितना विलंब है? जरा ढोल, मजीरा उतार दो। बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परंतु क्रोध प्रकट करने का अवसर न पाती थी। भय होता, कहीं पड़ोसिनें यह न कहने लगे कि इतने में उबल पड़ी। प्यास से कंठ सूख रहा था। गर्मी के मारे फॅकी जा रही थि, परंतु अवकाश भी नहीं था कि जरा पानी पी ले अथवा पंखा लेकर झले। वह भी खटका था कि जरा आँख हटी और चीजों की लूट मची। इस अवस्था में उसने बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास बैठी देखा तो जल गई। क्रोध न रुक सका, इसका भी ध्यान न रहा कि पड़ोसिनें बैठी हुई हैं, मन में क्या कहेंगी, पुरुषों में लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे। जिस प्रकार मेंढक केचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और उन्हें दोनों हाथों से झपटकर कहा - ऐसे पेट में आग लगे, पेट है यह भाड़? कोठरी में बैठते हुए क्या दम घुटता था? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गई। जल जाए ऐसी जीभ। दिन भर खाती न होती तो न जाने किसकी हाड़ी में मुंह डालती? गाँव देखेगा तो कहेगा कि बुढ़िया को भरपेट खाने को नहीं पाती तभी तो इस तरह मुँह बाये फिरती है। डायन न मरे न माँचा छोड़े। नाम बेचने पर लगी है। नाक कटवाकर दम लेगी। इतना ह्सती है न जाने कहाँ भस्म हो जाता है। भला चाहती हो तो जाकर कोठरी में बैठो, जब घर के लोग खाने लगेंगे तब तुम्हें मिलेगा। तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, परंतु तुम्हारी पूजा पहले ही हो जाए।