पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१७३

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लिए अधिक धैर्य का कारण हुआ। उसने पिटारी उठाई और बूढ़ी काकी की कोठरी की ओर चली। बूढ़ी काकी को केवल इतना स्मरण था कि किसी ने मेरे हाथ पकड़कर घसीटे, फिर ऐसा मालूम हुआ कि जैसे कोई पहाड़ पर उड़ाए लिये जाता है। उसके पैर बार-बार पत्थरों पर टकराए तब किसी ने उन्हें पहाड़ पर से पटका, वे मूर्छित हो गई। जब वे सचेत हुई तो किसी की जरा भी आहट न मिलती थी। समझी कि सब लोग खा-पीकर सो गए और उनके साथ मेरी तकदीर भी सो गई। रात कैसे कटेगी? राम! क्या खाऊँ? पेट में अग्नि धधक रही है? हा! किसी ने मेरी सुधि न ली! क्या मेरा पेट काटने से धन जुड़ जाएगा? इन लोगों को इतनी दया नहीं आती कि न जाने बुढ़िया कब मर जाए? उसका जी क्यों दुखावें? मैं पेट की रोटियाँ ही खाती हूँ कि और कुछ? इस पर यह हाल। मैं अंधी, अपाहिज ठहरी, न कुछ सुनूँ न बूढूं। यदि आँगन में चली गई तो क्या बुद्धिराम से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खा रहे है, फिर आना। मुझे घसीटा पटका। उन्हीं पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर का कलेजा न पसीजा। सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ही न दी, तब अब क्या देंगे? यह विचार कर काकी निराशामय संतोष के साथ लेट गई। ग्लानि से गला भरभर आता था, परंतु मेहमानों के भय से न रोती थी। सहसा उनके कानों में आवाज आई - काकी उठो, मैं पूड़ियाँ लाई हूँ। काकी ने लाडकी को बोली पहचानी। चटपट उठ बैठी। दोनों हाथों से लाडकी को टटोला और उसे गोद में बैठा लिया। लाडली ने पूड़ियाँ निकाल कर दी।