पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१७४

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काकी ने पूछा - क्या तुम्हारी अम्माँ ने दी हैं? लाडली ने कहा - नहीं, यह मेरे हिस्से की हैं। काकी पूड़ियों पर टूट पड़ी। पाँच मिनट में पिटारी खाली हो गई। लाडली ने पूछा - काकी पेट भर गया। जैसी थोडी-सी वर्षा ठंडक के स्थान पर और भी गर्मी पैदा कर देती है उसी भाँति इन थोड़ी पूड़ियों ने काकी की क्षुधा और इच्छा को और उत्तेजित कर दिया था। बोली - नहीं बेटी, जाकर अम्माँ से और माँग लाओ। लाडली ने कहा - अम्माँ सोती है, जगाऊँगी तो मारेगी। काकी ने पिटारी को फिर टटोला। उसमें कुछ खुर्चन गिरे थे। उन्हें निकालकर वे खा गई। बार-बार होट चाटती थीं, चटखारें मारती थीं। हृदय मसोस रहा था कि और पूड़ियाँ कैसे पाऊँ। संतोष-सेतु जब टूट जाता है तब इच्छा का बहाव अपरिमित हो जाता है। मतवालों को मद का स्मरण करना उन्हें मदांध बनाता है। काकी का अधीर मन इच्छा के प्रबल प्रवाह में बह गया। उचित और अनुचित का विचार जाता रहा। वे कुछ देर तक इस इच्छा को रोकती रही। सहसा लाडली से बोली - मेरा हाथ पकड़कर वहाँ ले चलो जहाँ मेहमानों ने बैठकर भोजन किया है। लाडली उनका अभिप्राय समझ न सकी। उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर जूठे पत्तलों के पास बैठा दिया। दीन, क्षुधातुर, हतज्ञान बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियाँ के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी। ओह दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, खस्ता कितने सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थीं कि मैं वह काम कह रही हूँ, जो मुझे कदापि न करना चाहए। मैं दूसरों की जूठी पत्तल चाट रही हूँ। परंतु बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय