पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१८४

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यह था कि मेरी आत्मा परास्त हो चुकी थी, उसमें अब प्रतिकार की शक्ति न रही थी। दीवान साहब ने मुझसे हाथ मिलाया और कोई घंटे भर तक आर्थिक और सामाजिक प्रश्नों पर वार्तालाप करते रहे। मुझे उनकी बहुज्ञता पर आश्चर्य होता था। ऐसा वाक् चतुर पुरुष मैंने कभी न देखा था। साठ वर्ष की वयस थी, पर हास्य और विनोद के मानों भंडार थे। न जाने कितने श्लोक, कितने कवित्त, कितने शेर उन्हें याद थे। बात-बात पर कोई न कोई सुयुक्ति निकाल लाते थे। खेद है उस प्रकृति के लोग अब गायव होते जाते है। वह शिक्षा प्रणाली न जाने कैसी थी, जो ऐसे-ऐसे रत्न उत्पन्न करती थी। अब तो सजीवता कहीं दिखाई ही नहीं देती। प्रत्येक प्राणी चिंता की मूर्ति है, उसके होठों पर कभी हँसी आती ही नहीं। खैर, दीवान साहब ने पहले चाय मँगवाई, फिर फल और मेवे मँगवाए। मैं रह-रहकर उत्सुक नेत्रों से देखता था। मेरे कान उसके स्वर का रसपान करने के लिए मुँह खोले हुए थे, आँखें द्वार की ओर लगी हुई थी। भय भी था और लगाव भी, झिझक भी थी और खिंचाव भी। बच्चा झूले से डरता है पर उस पर बैठना भी चाहता है। लेकिन रात के नौ बज गए, मेरे लौटने का समय आ गया। मन में लज्जित हो रहा था कि दीवान साहब दिल में क्या कह रह होंगे। सोचते होंगे इसे कोई काम नहीं हैं? जाता क्यों नहीं, बैठे-बैठे दो ढाई घंटे तो हो गए। सारी बातें समाप्त हुई। उनके लतीफें भी खत्म हो गए। वह नीरवता उपस्थित हो गई, जो कहती है कि अब चलिए फिर मुलाकात होगी। यार जिंदा व सोहब्बत बाकी। मैंने कई बार उठने का इरादा किया, लेकिन इंतजार में आशिक की जान भी नहीं निकलती, मौत को भी इंतजार का सामना करना पड़ता है। यहाँ तक कि साढ़े नौ बज गए और अब मुझे विदा होने के सिवाय कोई मार्ग न रहा, जैसे दिल बैठ गया। जिसे मैंने भय कहा है, वह वास्तव में भय नहीं था, वह उत्सुकता की चरम सीमा थी।