पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

यहाँ से चला तो ऐसा शिथिल और निर्जीव था मानो प्राण निकल गए हो। अपने को धिक्कारने लगा। अपनी क्षुद्रता पर लज्जित हुआ। तुम समझते हो कि हम भी कुछ हैं। यहाँ किसी को तुम्हारे मरने-जीने की परवाह नहीं। माना उनके लक्षण क्वॉरियों के-से हैं। संसार में क्वाँरी लड़कियों की कमी नहीं। सौंदर्य भी ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं। अगर प्रत्येक रूपवती और क्वाँरी युवती को देखकर तुम्हारी वही हालत होती रही तो ईश्वर ही मालिक है। वह भी तो अपने दिल में यही विचार करती होगी। प्रत्येक रूपवान युवक पर उसकी आँखें क्यों उठे। कुलवती स्त्रियों के यह ढंग नहीं होते। पुरुषों के लिए अगर यह रूप-तृष्णा निंदाजनक है तो स्त्रियों के लिए विनाशकारक है। दवैत से अद्वैत को भी इतना आघात नहीं पहुँच सकता, जितना सौंदर्य को। दूसरे दिन शाम को मैं अपने बरामदे में बैठा पत्र देख रहा था। क्लब जाने को भी जी नहीं चाहता था। चित्त कुछ उदास था। सहसा मैंने दीवान साहब को फिटन पर आते देखा। मोटर से उन्हें घृणा थी। वह उसे पैशाचिक उड़नखटोला कहा करते थे। उसके बगल में सुशीला थी। मेरा हृदय धक-धक करने लगा। उसकी निगाह मेरी तरफ उठी हो या न उठी हो, पर मेरी टकटकी उस वक्त तक लगी रही जब तक फिटन अदृश्य न हो गई। तीसरे दिन मैं फिर बरामदे में आ बैठा। आँखें सड़क की ओर लगी हुई थी। फिटन आई और चली गई। अब यही उसका नित्यप्रति नियम हो गया है। मेरा अब यहीं काम था कि सारे दिन बरामदें में बैठा रहूँ। मालूम नहीं फिटन कब निकल जाए। विशेषतः तीसरे पहर मैं अपनी जगह से हिलने का नाम भी न लेता था। इस प्रकार एक मास बीत गया। मुझे अब कौंसिल के कामों में कोई उत्साह न था। समाचार पत्रों में, उपन्यासों में जी न लगता। कहीं सैर करने का भी जी न चाहता। प्रेमियों को न जाने जंगल-पहाड़ों में भटकने की, काँटोंस से उलझने की सनक कैसे सवार होती है। मेरे तो जैसे पैरों में बेड़ियाँ-सी पड़ गई थी। बस