पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१८७

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गई। इसके साथ उसने मुझ पर मानों अमृत वर्षा कर दी। मेरे हृदय और आत्मा में एक नई शक्ति का संचार हो गया। मैं लौटा तो ऐसा प्रसन्नचित्त था मानो कल्पवृक्ष मिल गया हो। एक दिन मैंने प्रोफेसर भाटिया को पत्र लिखा - मैं थोड़े दिनों से किसी गुप्त रोग से ग्रस्त हो गया हूँ। संभव है, तपेदिक (क्षय) का आरंभ हो इसलिए मैं इस मई में विवाह करना उचित नहीं समझता। मैं लज्जावती से इस भाँति परांमुख होना चाहता था कि उनकी निगाहों में मेरी इज्जत कम न हो। मैं कभी-कभी अपनी स्वार्थपरता पर क्रुद्ध होता। लज्जा के साथ यह छल-कपट, वह बेवफाई करते हुए मैं अपनी ही नजरों में गिर गया था। लेकिन मन पर कोई वश न था। उस अबला को कितना दुःख होगा, यह सोचकर मैं कई बार रोया। अभी तक मैं सुशीला के स्वभाव, विचार, मनोवृत्तियों से जरा भी परिचित न था। केवल उसके रूप-लावण्य पर अपनी लज्जा की चिरसंचित अभिलाषाओं का बलिदान कर रहा था। अबोध बालकों की भाँति मिठाई के नाम पर अपने दूध-चावल को ठुकराए देता था। मैंने प्रोफेसर को लिखा था, लज्जावती से मेरी बीमारी की जिक्र न करें, लेकिन प्रोफेसर साहब इतने गहरे न थे। चौथे ही दिन लज्जा का पत्र आया, जिसमें उसने अपना हृदय खोलकर रख दिया। वह मेरे लिए सब कुछ यहाँ तक कि वैधव्य की यंत्रणाएँ भी सहने के लिए तैयार थी। उसकी इच्छा था कि अब हमारे संयोग में एक क्षण का भी विलंब न हो, अस्तु! इस पत्र को लिए घंटों एक संज्ञाहीन दशा में बैठा रहा। इस अलौलिक आत्मोत्सर्ग के सामने अपनी क्षुद्रता, अपनी स्वार्थपरता, अपनी दुर्बलता कितनी घृणित थी! लज्जावती