पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१८८

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सावित्री ने क्या सब कुछ जानते हुए भी सत्यवान से विवाह नहीं किया था? मैं क्यों डरूँ? अपने कर्तव्य-मार्ग से क्यों डिगूं। मैं उनके लिए व्रत रखूगी, तीर्थ करूँगी, तपस्या करूँगी। भय मुझे उनसे अलग नहीं कर सकता। मुझे उनसे कभी इतना प्रेम न था। कभी इतनी अधीरता न थी। यह मेरी परीक्षा का समय है, और मैंने निश्चय कर लिया है। पिता जो अभी यात्रा से लौटे हैं, हाथ खाली है, कोई तैयारी नहीं कर सके हैं। इसलिए दो-चार महीनों का विलंब से उन्हें तैयारी करने का अवसर मिल जाता; पर मैं अब विलंब न करूँगी। हम और वह इसी महीने में एक-दूसरे से हो जाएँगे, हमारी आत्माएँ सदा के लिए संयुक्त हो जाएँगी, फिर कोई विपत्ति, दुर्घटना मुझे उनसे जुदा न कर सकेगी। मुझे अब एक दिन की देर भी असह्य है। मैं रस्म और रिवाज की लौंडी नहीं हूँ। न वहीं इसके गुलाम हैं। बाबू जी रस्मों के भक्त नहीं। फिर क्यों न तुरंत नैनीताल चलूँ? उनकी सेवा-शुश्रूषा करूँ, उन्हें ढाढस दूँ। मैं उन्हें सारी चिंताओं से, समस्त विघ्न-बाधाओं से मुक्त कर दूंगी। इलाके का सारा प्रबंध अपने हाथों में लँगी। कौंसिल के कामों में इतना व्यस्त हो जाने के कारण ही उनकी यह दशा हुई। पत्रों में अधिकतर उन्हीं के प्रश्न, उन्हीं की आलोचनाएँ, उन्हीं की वक्तृताएँ दिखाई देती है। मैं उनसे याचना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए कौंसिल से इस्तीफा दे दें। वह मेरा गाना कितने चाव से सुनते थे। मैं उन्हें अपनी गीत सुनाकर प्रसन्न करूँगी, किस्से पढ़कर सुनाऊँगी, उनको समुचित रूप से शांत रवूगी। इस देश में तो इस रोग की दवा नहीं हो सकती। मैं उनके पैरों पर गिरकर प्रार्थना करूँगी कि कुछ दिनों के लिए यूरोप के किसी सैनिटोरियम चलें और विधिपूर्वक इलाज कराएं। मैं कल ही कालेज के पुस्तकालय में इस रोग से संबंध की पुस्तकें लाऊँगी और विचारपूर्वक उनका अध्ययन करूँगी। दो-चार दिन में कालेज बंद हो जाएगा। मैं आज ही बाबू जी से नैनीताल चलने की चर्चा करूँगी।