पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१९१

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निश्चय किया होगा। जब उन्होंने मन में यह बात ठान ली तो मुझे कोई अधिकार नहीं है कि उनके सुख-मार्ग का काँटा बनूं। मुझे सब्र करके, अपने मन को समझा कर यहाँ से निराश, हताश, भग्नहृदय, विदा हो जाना चाहिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि उन्हें प्रसन्न रखे। मुझे जरा भी ईर्ष्या, जरा भी दंभ नहीं है। मैं तो उनकी इच्छाओं की चेरी हूँ। अगर उन्हें मुझको विष दे देने से खुशी होती तो शौक से विष का प्याला पी लेती। प्रेम ही जीवन का प्राण है। हम इसी के लिए जाना चाहते है। अगर इसके लिए मरने का भी अवसर मिले तो धन्य भाग। यदि केवल मेरे हट जाने से सब काम सँवर सकते है तो मुझे कोई इनकार नहीं। हरि इच्छा? लेकिन मानव शरीर पाकर कौन मायामोह से रहित होता है? जिस प्रेम-लता को मुद्दतों से पाला था, आँसुओं से सींचा था, उसको पैरों तले रौंदा जाना नहीं देखा जाता। हृदय विदीर्ण हो जाता है। अब कागज तैरता जान पड़ता है, आँसू उमड़े चले आते हैं, कैसे मन को खींचूँ। हा! जिसे अपना समझती थी; जिसके चरणों पर अपने को भेंट कर चुकी थी, जिसके सहारे जीवनलता पल्लवित हुई थी, जिसे हृदय-मंदिर में पूजती थी, जिसके ध्यान में मग्न हो जाना जीवन का सबसे प्यारा काम था, उससे अब अनन्त काल के लिए वियोग हो रहा है। आह! किससे फरियाद करूँ? किसके सामने जाकर रोऊँ? किससे अपनी दुःख-कथा कहूँ। मेरा निर्बल हृदय यह वज्राघात नहीं सह सकता। यह चोट मेरी जान लेकर छोड़ेगी। अच्छा ही होगा। प्रेम-विहीन हृदय के लिए संसार कालकोठरी है, नैराश्य और अंधकार से भरी हुई। मैं जानती हूँ अगर आज बाबू जी उनसे विवाह के लिए जोर दें तो वह तैयार हो जाएंगे, बस मुरौवत को पुतले है। केवल मेरा मन रखने के लिए अपनी जान पर खेल जाएंगे। वह उन शीलवान पुरुषों में है जिन्होंने 'नहीं' करना ही नहीं सीखा। अभी तक उन्होंने दीवान साहब से सुशीला के विषय में कोई बातचीत नहीं की। शायद मेरा रुख देख रहे है। इसी असमंजस ने उन्हें इस दशा को पहुँचा दिया है। वह मुझे हमेशा प्रसन्न रखने की चेष्टा करेंगे। मेरा दिल कभी न दुखावेंगे, सुशीला की चर्चा भूलकर भी करेंगे। मैं उनके स्वभाव को जानती हूँ। वह नर-रत्न है। लेकिन मैं उनके पैरों की बेड़ी नहीं बनना चाहती। जो कुछ बीते अपने ही ऊपर बीते। उन्हें क्यों समेढूँ? डूबना ही है तो आप क्यों न डूबें उन्हें अपने साथ क्यों डूबाऊँ।