पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१९४

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लज्जावती ने फिर कहा - शायद यह हमारी अंतिम भेट हो। न जाने मैं कहाँ रहूँगी, कहाँ जाऊँगी; फिर कभी आ सकूँगी या नहीं। मुझे बिलकुल भूल न जाना। अगर मेरे मुँह से कोई ऐसी बात निकल आई हो जिससे तुम्हें दुःख हुआ हो तो क्षमा करना और अपने स्वास्थ्य का बहुत ध्यान रखना। यह कहते हुए उसने मेरी तरफ हाथ बढ़ाए। हाथ काँप रहे थे। कदाचित आँखों में आँसुओं का आवेग हो रहा था। वह जल्दी से कमरे के बाहर निकल जाना चाहती थी। अपने जब्त पर अब उसे भरोसा न था। उसने मेरी ओर दबी आँखों से देखा। मगर इस अर्द्ध चितवन में दबे हए पानी का वेग और प्रवाह था। ऐसे प्रवाह में मैं स्थिर न रह सका। इस निगाह ने हारी हुई बाजी जीत ली; मैंने उसके दोनों हाथ पकड़ लिये और गदगद स्वर से बोला - नहीं लज्जा, अब हममे और तुममे कभी वियोग न होगा। सहसा चपरासी ने सुशीला का पत्र लाकर सामने रख दिया। लिखा था - प्रिय श्री शारदाचरण जी, हम लोग कल यहाँ से चले जाएँगे। मुझे आज बहुत काम करना है, इसलिए मिल न सकूँगी। मैंने आज रात को अपना कर्तव्य स्थिर कर लिया। मैं लज्जावती के बने-बनाए घर को उजाड़ना नहीं चाहती। मुझे पहले यह बात न मालूम थी, नहीं तो हममें इतनी घनिष्ठता न होती। मेरा आपसे अनुरोध है कि लज्जा का हाथ से न जाने दीजिए। वह नारी-रत्न है। मैं जानती हूँ कि मेरा रंग-रूप उससे कुछ अच्छा है और कदाचित आप उसी प्रलोभन में पड़ गए; लेकिन मुझमें वह त्याग, वह सेवा भाव, वह आत्मोत्सर्ग नहीं है। मैं आपको प्रसन्न रख सकती हूँ, पर आपके जीवन को उन्नत नहीं कर सकती, उसे पवित्र और यशस्वी नहीं बना सकती। लज्जा देवी है, वह आपको देवता बना देगी। मैं अपने को इस योग्य नहीं समझती। कल मुझसे भेंट करना का विचार न कीजिए रोने-रुलाने से क्या लाभ। क्षमा कीजिएगा।