पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१९५

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आपकीसुशीला। मैंने यह पत्र लज्जा के हाथ में रख दिया। वह पढ़कर बोली - मैं उससे आज ही मिलने जाऊँगी। मैंने उसका आशय समझकर कहा - क्षमा करो, तुम्हारी उदारता की दूसरी बार परीक्षा नहीं लेना चाहता। यह कहकर मैं प्रोफेसर भाटिया के पास गया। वह मोटर पर मुँह फुलाए बैठे थे। मेरे बदले लज्जावती आई होती तो उस पर जरूर ही बरस पड़ते। मैंने उनके पद स्पर्श किए और सिर झुका कर बोला - आपने मुझे सदैव अपना पुत्र समझा है। अब उस नाते को और भी दृढ़ कर दीजिए। प्रोफेसर भाटिया ने पहले तो मेरी ओर अविश्वासपूर्ण नेत्रों से देखा तब मुस्कराकर बोले - यह तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी।