पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१९७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

बरसात था, नदियों में बाढ़ आई हुई थी। दफ्तर के कर्मचारी मछलियों का शिकार खेलने चले। शामत का मारा रफाकत भी उनके साथ हो लिया। दिन भर लोग शिकार खेला किए, शाम को मूसलाधार पानी बरसने लगा। कर्मचारियों ने तो एक गाँव में रात काटी, दफ्तरी घर चला, पर अँधेरी रात राह भूल गया और सारी रात भटकता फिरा। प्रातःकाल घर पहुँचा तो अभी अँधेरा ही था, लेकिन दोनों द्वारपट खुले हुए थे। उसका कुत्ता पूँछ दबाए करुण-स्वर से कराहता हुआ आकर, पैरों पर लोट गया। द्वार खुले देखकर दफ्तरी का कलेजा सन्न-से हो गया। घर में कदम रखे तो बिलकुल सन्नाटा था। दो-तीन बार स्त्री को पुकारा, किंतु कोई उत्तर न मिला। घर भाँय-भाँय कर रहा था। उसने दोनों कोठरियों में जाकर देखा। जब वहाँ भी उसका पता न मिला तो पशुशाला में गया। भीतर जाते हुए अज्ञात भय हो रहा था जो किसी अँधेरे खोह में जाते हए होता है। उसकी स्त्री वहीं भूमि पर चित्त पड़ी हुई थी। लक्षणों से अनुमान होता था कि साँप ने इस लिया है। दूसरे दिन रफाकत आया तो उसे पहचानना मुश्किल था। मालूम होता था, बरसों का रोगी है। बिलकुल खोया हुआ, गुम-सुम बैठा रहा मानों किसी दूसरी दुनिया में है। संध्या होते ही वह उठा और स्त्री की कब्र पर जाकर बैठ गया। अँधेरा हो गया। तीन-चार घड़ी रात बीत गई, पर दीपक के टिमटिमाते हुए प्रकाश में उसी कब्र पर नैराश्य और दुःख की मूर्ति बना बैठा रहा, मानो मृत्यु की राह देख रहा हो। मालूम नहीं कब घर आया। अब यही उसका नित्य का नियम हो गया। प्रातःकाल उठकर मजार पर जाता, झाडू लगाता, फूलों के हार चढ़ाता, लोबान जलाता और नौ बजे तक कुरान का पाठ करता, संध्या समय फिर यही क्रम शुरू होता। अब यही उसके जीवन का नियमित कर्म था। अब वह अंतर्जगत में बसता था। बाह्य जगत से उसने मुँह मोड़ लिया था। शोक ने विरक्त कर दिया था।