पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/१९९

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प्रदान की थी। इसका सबूत उसकी वह वाक्पुटता थी जो अब बहुधा पड़ोसियों को विनोदित और दफ्तरी को अपमानित किया करती थी। उसने आठ दिन तक दफ्तरी के चरित्र का तात्त्विक दृष्टि से अध्ययन किया और तब एक दिन उससे बोली - तुम विचित्र जीव हो। आदमी पशु पालता है अपने आराम के लिए न कि जंजाल के लिए। यह क्या कि गाय का दूध कुत्ते पियें, बकरियों का दूध बिल्ली चट कर जाए। आज से सब दूध घर में लाया करो। दफ्तरी निरुत्तर हो गया। दूसरे दिन घोड़ी का रातिब बंद हो गया। वह चने अब भाड़ में भनने और नमक-मिर्च से खाए जाने लगे। प्रातःकाल ताजे दूध का नाश्ता होता, आए दिन तस्मई बनती। बड़े घर की बेटी, पान बिना क्योंकर रहती? घी, मसाले का भी खर्च बढ़ा। पहले ही महीने में दफ्तरी को विदित हो गया कि मेरी आमदनी गुजर के लिए काफी नहीं है। उसकी दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो शक्कर के धोखे में कुनैन फाँक गया हो। दफ्तरी बड़ी धर्मपरायण मनुष्य था। दो-तीन महीने तक यह विषम वेदना सहता रहा। पर उसकी सूरत उसकी अवस्था को शब्दों से अधिक व्यक्त कर देती थी। वह दफ्तरी जो अभाव में भी संतोष का आनंद उठाता था, अब चिंता की सजीव मूर्ति था। कपड़े मैले, सिर के बाल बिखरे हुए, चेहरे पर उदासी छाई हुई, अहर्निश हाय-हाय किया करता था। उसकी गाय अब हड्डियों का ढाँचा थी, घोड़ी को जगह से हिलना कठिन था, बिल्ली पड़ोसियों के छींको पर उचकती और कुत्ता घूरों पर हड्डियाँ नोचता फिरता था। पर अब भी वह हिम्मत का धनी इन पुराने मित्रों को अलग न करता था। सबसे बड़ी विपत्ति पत्नी की वह वाक्प्रचूरता थी जिसके सामने कभी उसका धैर्य, उसकी कर्मनिष्ठा, उसकी उत्साहशीलता प्रस्थान कर जाती और अपनी अँधेरी कोठरी के एक कोने में बैठकर खूब फूट-फूटकर रोता। संतोष के आनंद को दुर्लभ पाकर रफाकत का पीड़ित हृदय उच्छंखलता की ओर प्रवृत्त हुआ। आत्माभिमान जो संतोष का प्रसाद है, उसके चित्त से लुप्त हो चुका था। उसने फाकेमस्ती का पथ ग्रहण किया। अब उसके पास पानी रखने के लिए