पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/२००

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कोई बरतन न था। वह उस कुएँ से पानी खींचकर उसी दम पी जाना चाहता था जिसमें वह जमीन पर बह न जाए। वेतन पाकर अब वह महीने भर का सामान जुटाता, ठंडे पानी और रूखी रोटियों से अब उसे तस्कीन न होती, बाजार से बिस्कुट लाता, मलाई के दोनों और कलमी आमों की ओर लपकता। दस रुपए की भुगत ही क्या? एक सप्ताह में सब रुपए उड़ जाते, तब जिल्दबंदियों की पेशगी पर हाथ बढ़ाता, फिर दो-एक उपवास होता, अंत में उधार माँगने लगता। शनैःशनैः यह दशा हो गई कि वेतन देनदारों ही के हाथों में चला जाता और महीने के पहले ही दिन से कर्ज लेना शुरू करता। वह पहले दूसरों को मितव्ययता का उपदेश दिया करता था, अब लोग उसे समझाते, पर वह लापरवाही से कहता - साहब, आज मिलता है खाते है कल का खुदा मालिक है; मिलेगा खाएंगे नहीं पड़कर सो रहेंगे। उसकी अवस्था अब उस रोगी-सी हो गई जो आरोग्य लाभ से निराश होकर पथ्यापथ्य का विचार त्याग दे, जिसमें मृत्यु आने तक वह भोज्यपदार्थों से भली-भाँति तृप्त हो जाए। लेकिन अभी तक उसने घोड़ी और गाय न बेची, यहाँ तक कि एक दिन दोनों मवेशीखाने में दाखिल हो गई। बकरियाँ भी तृष्णा व्याघ्र के पंजे में फँस गई। पोलाव और जरदे के चस्के ने नानबाई को ऋणी बना दिया था। जब उसे मालूम हो गया कि नगद रुपए वसूल न होंगे तो एक दिन सभी बकरियाँ हाँक ले गया। दफ्तरी मँह ताकता रह गया। बिल्ली ने भी स्वामिभक्ति से मुंह मोड़ा। गाय और बकरियों के जाने के बाद अब उसे दूध के बरतनों को चाटने की भी आशा न रही, जो उसके स्नेह-बंधन का अंतिम सूत्र था। हाँ, कुत्ता पुराने सद्व्यवहारों की याद करके अभी तक आत्मीयता का पालन करता जाता था, किंतु उसकी सजीवता विदा हो गई थी। यह वह कुत्ता न था जिसके सामने द्वार पर किसी अपरिचित मनुष्य या कुत्ते का निकल जाना असंभव था। वह अब भी भूकता था, लेकिन लेटे-लेटे और प्रायः छाती में सिर छिपाए, मानो अपनी वर्तमान स्थिति पर रो रहा हो। या तो उसमें अब उठने की शक्ति ही न थी, या वह चिरकालीन कृपाओं के लिए इतना कीर्तिगान पर्याप्त समझता था।