पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/२०४

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चैत का महीना था और संक्रांति का पर्व। आज के दिन नए अन्न का सत्तू खाया और दान दिया जाता है। घरों में आग नहीं जलती। भुनगी का भाड़ आज बड़े जोरों पर था। उसके सामने एक मेला-सा लगा हुआ था। साँस लेने का भी अवकाश न था। गाहकों का जल्दबाजी पर कभी-कभी झंझला पड़ती थी कि इतने में जमींदार साहब के यहाँ से दो बड़े-बड़े टोकरे अनाज से भरे हुए आ पहुँचे और हुक्म हुआ कि अभी भून दे। भुनगी दोनों टोकरे देख कर सहम उठी। अभी दोपहर था पर सूर्यास्त के पहले इतना अनाज भुनना असंभव था। घड़ी दो घड़ी और मिल जाते तो एक अठवारे के खाने भर को अनाज हाथ आता। दैव से इतना भी न देखा गया, इन यमदूतों को भेज दिया। अब पहर रात तक संतमेंत में भाड़ में जलना पड़ेगा; एक नैराश्य भाव से दोनों टोकरे ले लिये। चपरासी ने डाँट कर कहा - देर न लगे, नहीं तो तुम जानती हो। भुनगी - यहीं बैठे रहो, जब भुन जाए तो ले कर जाना। किसी दूसरे के दाने छुऊँ तो हाथ काट लेना। चपरासी - बैठने की हमें छुट्टी नहीं है, लेकिन तीसरे पहर तक दाना भुन जाए। चपरासी ताकीद कर के चलते बने और भुनगी अनाज भूनने लगी। लेकिन मन भर अनाज भूनना कोई हँसी तो थी नहीं, उस पर बीच-बीच में भुनाई बंद करके भाड़ भी झोंकना पड़ता था। अतएव तीसरा पहर हो गया और आधा काम भी न हआ। उसे भय हआ कि जमींदार के आदमी आते होंगे। आते ही गालियाँ देंगे, मारेंगे। उसने वेग से हाथ चलाना शुरू किया। रास्ते की ओर ताकती और बालू नाँद में छोड़ती जाती थी। यहाँ तक की बालू ठंड़ी हो गई, सेवड़े निकलने लगे। उसकी समझ में न आता था, क्या करे। न भूनते बनता था न छोड़ते बनता था। सोचने लगी कैसी विपत्ति है। पंडित जी कौन मेरी रोटियाँ चला देते है, कौन मेरे आँसू पोंछ देते है। अपना रक्त जलाती हूँ तब कही दाना मिलता है। लेकिन जब देखो खोपड़ी पर सवार रहते है, इसलिए न कि उनकी चार अंगुल धरती से मेरा निस्तार हो रहा है। क्या इतनी-सी जमीन का इतना मोल है? ऐसे कितने ही