पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/२०५

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टुकड़े गाँव में बेकार पड़े है, कितनी बखरियाँ उजाड़ पड़ी हुई है। वहाँ तो केसर नहीं उपजती फिर मुझी पर क्यों यह आठों पहर धोंस रहती है। कोई बात हुई और यह धमकी मिली कि भाड़ खोद कर फेंक दूंगा, उजाड़ दूंगा, मेरे सिर पर भी कोई होता तो क्या बौछारें सहनी पड़ती। वह इन्हीं कुत्सित विचारों में पड़ी हुई थी कि दोनों चपरासियों ने आकर कर्कश स्वर में कहा - क्यों री, दाने भुन गए। भुनगी ने निडर होकर कहा - भून तो रही हूँ। देखते नहीं हो। चपरासी - सारा दिन बीत गया और तुमसे इतना अनाज न भूना गया? यह तू दाना भून रही है कि उसे चौपट कर रही है। यह तो बिलकुल सेवड़े है, इनका सत्तू कैसे बनेगा। हमारा सत्यानाश कर दिया। देख तो आज महाराज तेरी क्या गति करते है। परिणाम यह हुआ कि उसी रात को भाड़ खोद डाला गया और वह अभागिनी विधवा निरावलम्ब हो गई। भुनगी को अब रोटियों का कोई सहारा न रहा। गाँववालों को भी भाड़ के विध्वंस हो जाने से बहुत कष्ट होने लगा। कितने ही घरों में दोपहर को दाना ही न मयस्सर होता। लोगों ने जा कर पंडित जी से कहा कि बुढ़िया को भाड़ जलाने की आज्ञा दे दीजिए, लेकिन पंडित जी ने कुछ ध्यान न दिया। वह अपना रोब न घटा सकते थे। बुढ़िया से उसके कुछ शुभचिंतकों ने अनुरोध किया कि जा कर किसी दूसरे गाँव में क्यों नहीं बस जाती। लेकिन उसका हृदय इस प्रस्ताव को स्वीकार न करता। इस गाँव में उसने अपने अदिन के पचास वर्ष काटे थे। यहाँ