पृष्ठ:मानसरोवर.djvu/२०८

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उस अग्नि-पर्वत के चारों ओर जमा हो गए। भुनगी अपने भाड़ के पास उदासीन भाव से खड़ी यह लंकादहन देखती रही। अकस्मात वह वेग से आ कर उसी अग्नि-कुंड में कूद पड़ी। लोग चारों तरफ से दौड़े, लेकिन किसी की हिम्मत न पड़ी की आग के मुँह में जाए। क्षणमात्र में उसका सूखा शरीर अग्नि में समाविष्ट हो गया. उसी दम पवन भी वेग से चलने लगा। ऊर्ध्वगामी लपटें पूर्व दिशा की ओर दौड़ने लगी। भाड़ के समीप ही किसानों की झोंपड़ियाँ थी, वह सब उन्मत्त ज्वालाओं का ग्रास बन गई। इस भाँति उत्साहित होकर लपटें और आगे बढ़ीं। सामने पंडित उदयभान की बखार थी, उस पर झपटीं। अब गाँव में हलचल पड़ी। आग बुझाने की तैयारियाँ होने लगी। लेकिन पानी के छींटों ने आग में तेल का काम किया। ज्वालाएँ और भड़की और पंडित जी के विशाल भवन को दबोच बैठीं। देखते ही देखते वह भवन उस नौका की भाँति जो उन्मत्त लहरों के बीच में झकोरे खा रही हो, अग्नि-सागर में विलीन हो गया और वह क्रंदन जो उसके भस्मावशेष में प्रस्फुटित होने लगे, भुगनी के शोकमय विलाप से भी अधिक करुणाकारी थी।